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आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप
का ही विरोध कर बैठे। फेंकना था सड़े हुए फलों को, किन्तु उन फलों के साथ रहे अच्छे फलों को भी फेंक दिया। उनमें यदि प्रखर प्रज्ञा होती तो वे शराब की दूकान के किनारे गिलास में दूध पीने वाले व्यक्ति को शराबी नहीं समझते । बन्दर को उड़ाना तो था मक्खी को, जो राजा की छाती पर बैठी थी मगर जब न उड़ी तो उसने मक्खी पर तलवार चलायी। बिचारा बन्दर उतनी दूर की कैसे सोचेगा कि मक्खी पर तलवार मारने से राजा भी मर जायेगा। मक्खी पर हाथ से मारने की जरुरत थी, तलवार से नहीं।
पूर्वजों की संतति अच्छी निकली। यह अहोभाग्य की बात है। आज मैं देखता हूँ कि बहुत से स्थानकवासी और तेरापन्थी इस बात को समझ चुके हैं। कुछेक कट्टरपन्थियों के कारण वे मूर्तिवाद का सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। मगर अधिकांश स्थानकवासी वगैरह लोग व्यक्त-अव्यक्त रूप में स्वीकार करने लग गये हैं। स्तूप, चित्र, आदि के रूप में तो खैर स्वीकार करते ही हैं। जो कि मूर्ति की मान्यता का ही मात्र एक रूपान्तरण है। सुना जाता है कि आचार्य तुलसी जैसे मूर्तिपूजाके विरोधी सम्प्रदाय वालों ने भी राजस्थान के दो-चार जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया है। अब तो अनेक अमूर्तिपूजक साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाएं जैन मन्दिरों में, जैन तीर्थों में दर्शन-वन्दन-पूजन भी करने जाते हैं। उनका विरोध नहीं है। अच्छी बात है यह । वस्तुतः सत्य को ठुकराया नहीं जा सकता। इतिहास पर लात नहीं मारी जा सकती। एक समय में मूर्ति का समर्थन, फिर विरोध और अब वापस समर्थन - यह सब देशकालानुरूप परिवर्तन है ।
__ एक समय था जब कोई साधु लाउडस्पीकर पर बोलता तो समाज में काफी हो हल्ला मच जाता। बड़े-बड़े लोग इसका विरोध करते थे। मैंने सुना है कि भीलवाड़ा में जब सुशीलकुमार जी का चातुर्मास था तो वे लाउडस्पीकर पर बोलने लगे। आचार्य तुलसी जी ने इसका विरोध किया। वह एक समय था उस समय उसका प्रचलन नहीं था, लेकिन उन्होंने जब इसकी उपयोगिता समझी तो वे सभी बड़े धड़ल्ले के साथ अब लाउडस्पीकर में बोलते हैं।
___ इसी तरह जैसे सपनों की बोलियाँ होती हैं चैत्यवासियों ने सपनों को बोलियों का प्रचलन किया। इसमें है कुछ भी नहीं। जिस दिन कल्पसूत्र पढ़ते हैं उस दिन न तो सपने दिखाई दिये त्रिशला रानी को और न महावीर का जन्म हुआ। मन्दिर संचालन या मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए या अन्य कार्यों को दृष्टि में रखते हुए इस प्रथा को उपयोगी समझा गया। लोग कम से कम पर्युषण में अवश्यमेव ही अपने धर्मस्थानों में पहुँचते हैं। अतः मन्दिरों के जीर्णोद्धार इत्यादि कार्य करवाने के लिए इस परम्परा में कुछ न भी होते हुए भी चाल रखा गया। इसकी उपयोगिता थी, इसीलिए चाल रखा गया। आज भी इसकी उपयोगिता है। इसीलिए चाल ही रखा जा रहा है।
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