Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 47
________________ ३८ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप परम्परा सचेलक परम्परा में बदल गयी थी। क्योंकि धर्म जब मनुष्य के लिए पालन करने योग्य नहीं रह जाता भारभूत तथा अस्वाभाविक हो जाता है तो उस धर्म में कुछ परिवर्तन करना ही पड़ता है। दूसरे तीर्थङ्कर अजितनाथ से पार्श्वनाथ की परम्परा तक लगभग मृदु चर्या फिर कठोरचर्या में बदल गयी थी। क्योंकि उस मृदुचर्या में कई प्रकार के आघात और व्याघात आने लग गये थे। अतः महावीर को देश तथा काल के अनुरूप ही अपनी चर्या को कठोर बनाना पड़ा। महावीर स्वामी ही नहीं, उनके शिष्य गौतम और श्रमण केशी जब परस्पर मिले तो देश और काल के अनुसार परम्पराओं में काफी परिवर्तन हुआ था। सबसे बड़ा परिवर्तन तो चातुर्याम धर्म का पंचयाम धर्म के रूप में परिवर्तित हो जाना है। स्वयं तीर्थकर ने भी देश और काल के अनुरूप ही आचार व्यवहार का उपदेश दिया । आचार और व्यवहार की उन्होंने प्रेरणा दी, उसमें परिवर्तन भी किया। ऋषभदेव ने असी मसि और कृषि का उपदेश दिया, लेकिन महावीर स्वामी ने उसका उपदेश नहीं दिया। एक समय होता है, एक परिस्थिति होती है कि स्वयं तीर्थङ्कर को भी उन सबके लिए प्ररणा देनी पड़ती है। धर्म देश और काल के अनुरूप ही निर्मित हो जाता है। आचार और व्यवहार देश और काल के अनरूप ही परिवर्तित होने लग जाते हैं। __ श्रमण-वर्ग के लिए लिखना बिलकुल निषिद्ध था। निशीथ सूत्र में स्पष्ट रूप में कहा गया कि साधु-वर्ग कलम के द्वारा लिख नहीं सकता। लेकिन देश और परिस्थिति को देखते हुए देवधिगणि को यह परम्परा और इस आगम आज्ञा दोनों को ही तोड़ना पड़ा और आगमों को उन्होंने लिपिबद्ध करवाया। जैन धर्म में देवर्धिगणि ही लेखनी चलाने वाले सबसे पहले आचार्य हुए और लेखनी चलाने वाले का जो निषेध था, उसको तोड़ने वाले भी देवधिगणि ही थे, लेकिन यह परम्परा का तोड़ना भविष्य के लिए बड़ा ही कल्याणकारी हुआ। आज यदि देवधिंगणि उस परम्परा को नहीं तोड़ते, देश और काल की आवश्यकता के अनुसार आगमों को लिपिबद्ध नहीं करवाते तो आज महावीर स्वामी की वाणी एवं जैन धर्म की परम्परा कुछ भी अवशेष नहीं रहती। इसलिए देश और काल के अनुरूप आचार तथा व्यवहार में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि हम आगमों पर दृष्टिपात कर तो एक नहीं ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिसमें देश और काल के अनुरूप आचार व्यवहार में परिवर्तन किया गया था, जैसे कि हम पात्र को लें। सबसे पहले पाणिपात्र की ही प्रथा थी। साधु लोग हाथ में भोजन करते थे, लेकिन इसमें परिवर्तन आया और आचारांगसूत्र में श्रमण को एक पात्र रखने का निर्देश दिया गया। कुछ समय के बाद वृहत् कल्प भाष्य आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि आर्यरक्षित सूरि ने जब देखा कि एक पात्र में असुविधा होती है, साधु जिस पात्र में भोजन को उसी पात्र को शौच आदि अन्य आवश्यक क्रियाओं में उपभोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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