Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 53
________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप अतः इस दृष्टि से यदि परिवर्तन करना जरुरी है तो परिवर्तन करना भी चाहिए। किन्तु कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो परिवर्तन तो करते हैं लेकिन बाहर में दिखाते हैं कि हम तो उसी परम्परा पर चल रहे हैं। बाहर से तो डींगे हाँकते हैं लेकिन भीतर से सब कुछ बदला हुआ है। क्या फर्क पड़ता है यदि बाहर के चोले को भी वैसा ही कर दें जैसा भीतर का चोला है। जैसे कि उदाहरण हूँ-कुछ परम्पराएं जैन धर्म में यह बात कहती है कि धर्मशाला बनाना या मन्दिर बनाना ये सब पाप के काम है। मन्दिर बनाते हैं, या मूर्ति बनाते हैं, तो पृथ्वीकाय की हिंसा हुई, अभिषेक किया अप्काय की हिंसा हुई, दीपक जलाया,अग्नि व वायु की हिंसा हुई, फूल चढ़ाये, वनस्पतिकाय की हिंसा हुई । ठीक है हिंसा हुई मान लिया। लेकिन एक बात पूछता हूँ कि जो लोग यह बात कहते हैं उनको कहिये यदि तुमने मकान बनाया है तो तुम देखते नहीं हो कि नालन्दा का विश्वविद्यालय खण्डहर हो गया । इतने बड़े-बड़े राजमहल थे, आज सब पर कौवे बोलते है फिर तू मकान क्यों बना रहा है ? फिर मकान बनाने का हिंसामूलक कृत्य क्यों कर रहे हो। ईट, चूना, पत्थर को सजाकर उस पर क्यों गुमान करते हो ? खैर चलो माना कि मकान शरीर को आवश्यकता है। तुम धर्मशाला क्यों बनाते हो ? जब एक तरफ कहते हो कि धर्मशाला बनाना है पाप है तो फिर उसको 'धर्मशाला' क्यों कहते हो 'पापशाला' क्यों नहीं कहते। जबकि दुनियां में ऐसा कोई मूर्ख आदमी नहीं जो धर्मशाला को पापशाला कह दे। लोग उसको धर्मशाला ही कहेंगे। लेकिन धर्मशाला बना करके भी कहेंगे कि धर्मशाला बनाना पाप है। वे पाप का पुतला खुद बनाते हैं। मैं कहता हूँ कि धर्मशाला के बाहर बोर्ड लगाना चाहिए 'पापशाला' जबकि बोर्ड लगाते हैं धर्मशाला का। नवीन को ग्रहण भी करते हैं लोग, और पुराने का ढ़ोल भी पीटते हैं। यदि नई चीज अच्छी हैं तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और यदि पुरानी चीज बुरी है तो उसको छोड़ देना चाहिए। नई चीज बुरी है तो उसको छोड़ देना चाहिये पुरानी चीज अच्छी है तो उसको ग्रहण कर लेना चाहिए। फल का ग्रहण होता है, काँटों को ग्रहण कर क्या करेंगे। अपने लिये और दूसरों के लिए, दोनों के लिए दुःखकर है काँटे तो। वास्तव में सत्य किस परम्परा में है, इसको देखना है। परम्परा क्या है, यह नहीं देखना है। किस परम्परा में, किस वस्तु में सत्य का दर्शन होता है, कौन सी परम्परा आत्मा के लिए, समाज के लिए सबके लिए कल्याणकारी है, वही परम्परा हमें अपनानी है। प्राचीन और नवीन दोनों का विवेकमूलक समन्वय करते हुए हमें देश और काल के अनुरूप आचार-व्यवहार में यदि परिवर्तन तथा परिवर्धन भी करना पड़े तो हम उसका निःसंकोच परिवर्धन करें। नवीनता में अगर सार है तो वह उपादेय है। तथ्यरहित प्राचीनता भी हेय है। 'सार-सार को ग्रही रहे, थोथा देइ उड़ाय । असार तत्त्व को पकड़कर क्या करेंगे ? सारतत्त्व को ग्रहण करें। जिसमें सत्य है, वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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