Book Title: Ransinh Charitram
Author(s): Somgani Muni
Publisher: Somgani Muni

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीरणसिंह चरित्रम् तथा धर्म द्विधा प्राहु,-रहन्तोऽहर्पतिप्रभाः। सर्वतो विरतैरेक, देशतोविरतः परम् ॥ ८५ ॥ तयोराद्य सुसाधनां, चञ्चत्पञ्च-व्रतात्मकम् । सम्यक्तान्वित पञ्चाणु,-व्रत त्रिगुण सद्वतम् ॥ ८६ ॥ चतुःशिक्षाव्रतोपेतं, श्राद्धधर्म द्वितीयकम् । शाश्वतानन्द दातार-, मन्यं चानुक्रमेण हि ॥ ८७॥ धर्माद्राज्यं प्राज्यमारोमारोग्य मायु,-दिव्यं रूपं रम्यरामाविलासः ।। बुद्ध वृद्धिः सर्वकार्येषु सिद्धि, सम्पत्सर्वा ह्यत्र पारत्र्यसिद्धिः ॥ ८८ ॥ इत्येवं देशना प्रान्ते, सिंहः सिहपराक्रमः । भावितः साधु धुर्याभ्यां, सुधादेशीयया गिरा ॥ ८६ ॥ प्रतिपद्यस्व वत्स ! त्वं, जिनधर्म धनावहम् । सिंहोऽवादीदहं कर्तु, पारयामि न साम्प्रतम् ॥ १० ॥ सामायकादि षड्विध, - सदनुष्ठाने ह्यवश्यकर्त्तव्ये । नाहमलं त्रिकदशकैः-श्रुद्ध जिनपूजने शिवदे ॥११॥ न तथा तपो विधाने, सिद्धान्तविचारणेऽपि नो बुद्धिः। देवे गुरौ न तत्त्वे, रत्नत्रयपालने शक्तिः ॥१२॥ पुनरप्यभाणि मुनिना, जिनपूजे कापि कामितं कुर्याः । तस्मात्स्वकीय भक्ता,-दखण्ड पिण्डी प्रदातव्या ॥ १३ ॥ एवं नियमविशेष भूयाः, सविशेष निखिल लाभकरः । पूजामनुभोक्तव्यं, सद्यः सफलो हि दृढ़नियमः ॥ ६४ ॥ For Private and Personal Use Only

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