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गाथा संख्या
६१
६२
६६
७०
७१
३२
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जहाँ तक इन्द्रिय ज्ञान है वहाँ तक स्वभाव से दुख है ६५-६६ शरीर सुखी नहीं हो किन्तु आरण ही सुखरूप होता है
६७
३८
( १६ )
विषय
तथा अनिष्ट नष्ट हो जाने से इष्ट की
६८
६८ / १-२ अरहन्त को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार
७६
७६/१
७९/२
केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को जानने सिद्धि हो जाने से सुख रूप है
जो केवलियों में सुख का श्रद्धान नहीं करता वह अभव्य है जो श्रद्धान करता है वह निकट भव्य है जो आगे स्वीकार करेगा वह दूर भव्य है
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अभव्य शब्द से सर्वथा अभव्य न ग्रहण करना किन्तु वर्तमान में सम्यक्त्व रहित है, सरागसम्यग्दृष्टि आत्मोत्पन्न सुख को नहीं भोगता परोक्षज्ञानियों के इन्द्रियसुख का स्वरूप
जो आत्मा स्वयं सुख स्वभाव वाला है उसका विषय अकिंचित कर है जैसे जिसकी आंख अन्धकार को नष्ट करने वाली है उसको दीपक अकिंचित्कर है सिद्ध भगवान् स्वयं ज्ञान सुख तथा देवता रूप हैं
७३-७४ निरतिशय पुण्य के उत्पादक शुभोपयोग को दुख का कारण बतलाते हैं। निरतिशय पुण्य दुख का बीज है इन्द्रियसुख दुख रूप है
७५
७३
'७७
निरतिशय पुण्य व पाप में निश्चयनय से जो अभेद नहीं मानता वह अनन्त संसारी है ।
पदार्थ स्वरूप को जानकर जो राग-द्वेष नहीं करता वह कर्मों का क्षय करता है पापारम्भ को छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होने पर भी यदि मोहादि को नहीं छोड़ता है तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता
शुभपरिणामाधिकार
पृष्ठ संख्या
इन्द्रियसुख की दृष्टि वाले निरतिशय शुभीपयोगी का स्वरूप मात्र इन्द्रियसुख के साधनभूत शुभोपयोग का फल
इन्द्रिय सुख दुख रूप ही है
मात्र इन्द्रियसुख का साधन भूत शुभोपयोग में और अशुभोपयोग में कोई विशेषता नहीं है
स्वर्ग तथा मोक्ष इन दोनों के मार्ग का उपदेश अरहन्त ने दिया है। जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने से अक्षय सुख की प्राप्ति होती हैं। जो अरहन्त को द्रव्य गुण पर्याय द्वारा जानता है वह आत्मा को जानता है, और उसका मोह नाश को प्राप्त हो जाता है
१४१-४३
१४३-४५
१४५-४७
१४७-४६
१४९-५२
१५२-५३
१५४-५५
१५६-५८
१५८- ६१
१६१-६२
१६२-६८
१६४-६५
१६६-६६
१६६-७१
१७१-७३
१७३-३५ १७५ ७३
१७७-७५
१७८-७९
१७६-२०
१५०-८३