Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 13
________________ ६८-७० ७०-७१ ( १७ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २० केवली के शारीरिक सुख-दुख नहीं है तथा क्षुधा ब कवलाहार भी नहीं है। ४६-५२ २१ केवली के सब पदार्थ प्रत्यक्ष है ५२-५४ २२ केवली के कुछ भी परोक्ष नहीं है आत्माज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण होने से सर्वगत है २४-२५ आत्मा ज्ञान से हीनाधिक नहीं है ५६-११ २६ आत्मा भी सर्वगत है । सुख का लक्षण अनाकुलता है। ज्ञान ही आमामा एकास नहीं है ६४-६६ शान और जेय के परस्पर गमन का निषेध है ६६-६८ आँख की तरह केवली, न प्रविष्ठ होकर और न अप्रविष्ट रहकर, ज्ञेयों को जानता है जैसे इन्द्रनीलमणि अपनी आभा से दूध को व्याप्त कर वर्तन करता है वैसे ज्ञान भी ज्ञेयों को व्याप्त करता है। दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान, ज्ञेय भी ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं अन्यथा ज्ञान सर्वगत सिद्ध नहीं हो सकेगा । यह व्यवहारनय का कथन है केवली ज्ञेय पदार्थो को न ग्रहण करते हैं, न छोड़ते हैं और न ज्ञेय रूप परिणत होते हैं किन्तु जानते हैं ७३-७५ श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अविशेषता है ७५-७० पुद्गलात्मकद्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट है उसको जानने वाला श्रुतशान है अथवा सामान्यज्ञान है ज्ञान और आत्मा का तदात्म्य सम्बन्ध है, व्यवहारनय से ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है ८०-८१ ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है अकेला स्वयं अपने में से कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता ८३-८६ अतीत व अनागत असद्भुत पर्याय और वर्तमान सद्भूत पर्यायज्ञान में तात्कालिक के समान पर्याये वर्तन करती हैं, छद्मस्य का ज्ञान भी त्रिकालज्ञ है नियतिवाद एकान्तमिथ्यात्व है ८७-६० ३८-३६ अतीत व अनागत पर्यायें असद्भूत है फिर भी वे ज्ञान में व्यवहारनय से प्रत्यक्ष हैं ६०-६५ इन्द्रिय ज्ञान अतीत व अनागत पदार्थों को नहीं जानता ६३-६४ अतीन्द्रियज्ञान मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को तथा भूत व भावि सब पर्यायों को जानता है, किन्तु इन्द्रियज्ञान नहीं जानता ६५-६६ ३६

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