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(XXV) खण्डन परीक्षामुख में है, इससे भी इनकी पूर्वावधि का समर्थन होता है। प्रभाचन्द्र का समय ई. की 11वीं शताब्दी है। अतः इनकी उत्तरावधि ईसा की 10वीं शती समझना चाहिए। इस लम्बी अवधि को संकुचित करने का कोई निश्चित प्रमाण अभी दृष्टि में नहीं आया है। अधिक सम्भव यही है कि ये आचार्य विद्यानन्द के समकालीन हों और इसलिए इनका समय ई. 9वीं शती होना चाहिए।
ध्यातव्य है कि डॉ. दरबारी लाल कोठिया जी ने आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में यह सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभाचन्द्र के साक्षात् गुरु थे। अतः इससे ज्ञात होता है कि माणिक्यनन्दि का समय उनसे कुछ पूर्व (ई. 1028) के लगभग है। नयनन्दी ने वि.सं. 1100 में 'सुदंसणचरिउ' पूर्ण किया और स्वयं को माणिक्यनन्दि का प्रथम शिष्य कहा है। अतः इस आधार पर नयनन्दि से लगभग 25 से 40 वर्ष वि. सं. 1060 के लगभग अर्थात् ई. सन् 100३ का समय माणिक्यनन्दि का रहा होगा। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पं. उदयचन्द जी जैन इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आचार्य माणिक्यनन्दि का समय 11वीं शती का प्रथम चरण रहा होगा।
आचार्यमाणिक्यनन्दि का योगदान
अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुखसूत्र' ग्रन्थ ही हमें प्राप्त होता है किन्तु इस एक कृति ने ही जैनदर्शन पर उनके अवदान को अजर और अमर बना दिया है।
परीक्षामुख में प्रमाण और प्रमाणाभास की परीक्षा की गयी है। जिस प्रकार हम दर्पण में अपने मुख को स्पष्ट देखते हैं उसी प्रकार परीक्षामुख रूपी दर्पण में प्रमाण और प्रमाणाभास को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह ग्रन्थ छह समुद्देशों में विभक्त है।
परीक्षामुख पर आ. अकलंकदेव के ग्रन्थों का प्रभाव तो है ही, साथ ही बौद्धदार्शनिक दिगनांग के न्यायप्रवेश और धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु का भी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इनके उत्तरकालवर्ती आचार्यों में आचार्य वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोक और हेमचन्द्र सूरि की प्रमाणमीमांसा पर इनका परीक्षामुख सूत्र अपना अमिट प्रभाव रखता है।"