________________
श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ आचार्य श्री मलयगिरिजी की व्याख्या के पश्चात् अन्य कुछ आचार्यों ने भी व्याख्याएँ लिखी हैं, पर वे व्याख्याएँ पूर्ण आगम पर नहीं हैं और न इतनी विस्तृत ही हैं। मुनि श्री चन्द्रसूरिजी ने प्रज्ञापना के वनस्पति के विषय को लेकर वनस्पतिसप्ततिका ग्रन्थ लिखा है जिसमें ७१ गाथाएँ हैं। इस पर एक अज्ञात लेखक की एक अवचूरि भी है। यह अप्रकाशित है और इसकी प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर ग्रन्थागार में है। __ प्रज्ञापनाबीजक-यह श्री हर्षकुलगणीजी की रचना है, ऐसा विज्ञों का मत है। क्योंकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में और अन्त में कहीं पर भी कोई सूचना नहीं है। इसमें प्रज्ञापना के छत्तीस पदों की विषयसूची संस्कृत भाषा में दी गई है। यह प्रति भी अप्रकाशित है और लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर ग्रन्थागार के संग्रह में है।
पद्मसुन्दरकृत अवचूरि-यह भी एक अप्रकाशित रचना है, जिसका संकेत आचार्य श्री मलयगिरिजी ने अपनी टीका में किया है। इसकी प्रति भी उपर्युक्त ग्रन्थागार में उपलब्ध है।
श्री धनविमलकृत बालावबोध भी अप्रकाशित रचना है। सर्वप्रथम भाषानुवाद इसमें हुआ है जिसे टबा कहते हैं। इस टबे की रचना संवत् १७६७ से पहले की है। श्री जीवविजयकृत दूसरा टबा यानी बालावबोध भी प्राप्त होता है। यह टबा संवत् १७६४ में रचित है। परमानन्दकृत स्तवक अर्थात् बालावबोध प्राप्त है, जो संवत् १८७६ की रचना है। यह टबा रायधनपतसिंह बहादुर की प्रज्ञापना की आवृत्ति में प्रकाशित है। श्री नानकचंदकृत संस्कृतछाया भी प्राप्त है, जो रायधनपतसिंह बहादुर ने प्रकाशित की है (प्रज्ञापना के साथ)। पण्डित भगवानदास हरकचन्द ने प्रज्ञापनासूत्र का अनुवाद भी तैयार किया था, जो विक्रम संवत् १९९१ में प्रकाशित हुआ। [जिसका यह पुनः प्रकाशन किया गया है। सं.] आचार्य अमोलक ऋषिजी महाराज ने भी हिन्दी अनुवाद सहित प्रज्ञापना का एक संस्करण प्रकाशित किया था। इस प्रकार समय-समय पर प्रज्ञापना पर विविध व्याख्या साहित्य लिखा गया है। .
सर्वप्रथम सन् १८८४ में मलयगिरिविहित विवरण, रामचन्द्रकृत संस्कृतछाया ब परमानन्दर्षिकृत स्तबक के साथ प्रज्ञापना का धनपतसिंह ने बनारस से संस्करण प्रकाशित किया। उसके पश्चात् सन् १९१८-१९१९ में आगमोदय समिति बम्बई ने मलयगिरि टीका के साथ प्रज्ञापना का संस्करण प्रकाशित किया। विक्रम संवत् १९९१ में भगवानदास हर्षचन्द्र जैन सोसायटी अहमदाबाद से मलयगिरि टीका के अनुवाद के साथ प्रज्ञापना का संस्करण निकला। सन् १९४७-१९४९ में ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम, जैन पुस्तक प्रचार संस्था, सूरत से हरिभद्रविहित प्रदेशव्याख्या सहित प्रज्ञापना का संस्करण निकला। सन् १९७१ में श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से पण्णवणासुत्तं मूल पाठ और विस्तृत प्रस्तावना के साथ, पुण्यविजयजी महाराज द्वारा सम्पादित प्रकाशित हुआ है। विक्रम संवत् १९७५ में श्री अमोलक ऋषिजी महाराज कृत हिन्दी अनुवाद सहित हैदराबाद से एक प्रकाशन निकला है। वि. सम्वत् २०११ में सूत्रागमसमिति गुडगांव छावनी से श्री पुष्फभिक्खु द्वारा सम्पादित प्रज्ञापना का मूल पाठ प्रकाशित. हुआ है। इस तरह समय-समय पर आज तक प्रज्ञापना के विविध संस्करण निकले हैं।
प्रज्ञापना की प्रस्तावना में बहुत ही विस्तार के साथ लिखना चाहता था, क्योंकि प्रज्ञापना में ऐसे अनेक मौलिक विषय हैं जिन पर तुलनात्मक दृष्टि से चिंतन करना आवश्यक था, पर अस्वस्थ हो जाने के कारण चाहते हुए भी नहीं लिख सका। परमश्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनि महाराज का मार्गदर्शन भी मेरे लिए अतीव उपयोगी रहा है। जैन स्थानक,
देवेन्द्रमुनि शास्त्रीमदनगंज-किशनगढ़ विजयादशमी, १३ अक्तूबर १९८३