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करने पर वह बड़ा कोषित हुआ । उसमें बावड़ी की वाकर के केश मूंढ लिये । जल सोखिमी विद्या द्वारा उसने बावड़ी सुखा दिया तथा कर्म में भर लिया और फिर नगर के कमंडलु के पानी को उडेल दिया जिससे सारे बाजार में हो गया ।
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पाक्षियों का सारा पानी चौराहे पर उस पानी ही पानी
इसके पश्चात् प्रद्युम्न मायासत्र मेंढा बना कर वसुदेव के महल परं पहुँचा । बसुदेव मेंढे से लड़ने लगे। वे मेंढे से लड़ने के शौकीन थे। मैंढे नेत्रसुदेव की टांग तोड़ कर उन्हें भूमि पर गिरा दिया। फिर प्रम्न वहां से सत्यभामा के महल पर जाकर भोजन - भोजन जिल्लाने लगा । सत्यभामा ने उसे आदर से भोजन कराया, पर उस भेषधारी ब्राह्मण ने सत्यभामा का जितना भी सामान जीमन के लिये लिया था सभी चट कर दिया और फिर भी भूखा ही बना रहा। इसके पश्चात् उसने एक और कौतुक किया कि जो कुछ उसने खाया था वह सब वमन कर उसका आंगन भर दिया। इससे सत्यभामा बड़ी दुखी एवं तिरस्कृत हुई ।
इसके बाद यह ब्रह्मचारी का भेष धारण कर अपनी माता रुक्मिणी के मद्दल में गया। रुक्मिणी अपने पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा में थी क्योंकि केवली कथित उसके आने के सभी चिह्न दिखाई दे रहे थे। इतने में ही उसने एक ब्रह्मचारी को आता हुआ देखा । रुत्रिमरशी ने उसे सत्कारपूर्वक असत दिया । वह ब्रह्मचारी बड़ा भूखा था, भोजन की याचना करने लगा। प्रश् न की माया से रुत्रिसरणी को घर में कुछ भी भोजन नहीं मिला तो उसने नारायण के खा सकने योग्य लड्डु उस ब्रह्मचारी को परोस दिये। उन श्रत्यन्त गरिष्ठ सारे लड्डुओं को उसे खाते देख कर रुक्मिणी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसकी बातचीत से उसको सन्देह हुआ कि सम्भवतः वही उसका पुत्र हो । जब सचाई जानने के लिए माता बहुत बेचैन हो गई तब अकस्मात् प्रयुम्न अपने असली सुन्दर रूप में प्रकट हो गया और उसे देख कर माता की प्रसन्नता का पार न रहा |
सत्यभामा की दासियां जब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार रुक्मिणी के केश लेने आई तो प्रयम्न ने उन्हें भी विकृत कर दिया। इस समाचार को सुन कर बलभद्र बड़े कुपित हुए और रुक्मिणी के पास आये । प्रथम्न त्रिकिया से अपना स्थूलकाय ब्राह्मण का रूप बना कर महल के द्वार के आगे लेट गया । बलभद्र ने बड़ी कठिनता से उसे हटा कर महल में प्रवेश किया, इतने में ही प्रद्युम्न ने सिंह रूप धारण किया और बलभद्र का पैर पकड़ कर
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