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पार्श्वनाथ
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अर्थात् नीम को चाहे जितने मधु से सींचा जाय पर नीम क्या कभी मधुर हो सकता है। वह अपनी कटुता का त्याग नहीं करता यह दोप उसके जातीय स्वभाव का है-मधु का नहीं।
सौ मन सावुन से भी यदि कोयले धोए जाएँ तो भी वे उज्ज्वल नहीं हो सकते । पलाएडु को भले ही कस्तूरी का खाद दीजिए वह अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ने का। कमठ का आत्मा मिथ्यात्व की प्रगाढ़ता के कारण अतिशय मलीमस था। अतएव मुनिराज के सद्धपदेश का उसके हृदय-प्रदेश मे लेश मात्र भी प्रवेश न हो सका । किन्तु मरुभूति का आत्मा पूर्व पुण्य के उदय से सरल
और सत्याभिमुख था । उसने देशविरति को अंगीकार किया । वह प्रतिदिन सामायिक, सवर, पौपध, दया और व्रत प्रत्याख्यान
आदि सदनष्ठानों मे तल्लीन रहने लगा। वह ज्यों ज्यों आत्मा की ओर अभिमुख होता गया त्यों-त्यों सासारिक व्यवहारों तथा भोगोपभोगो मे उसका मोह घटने लगा। यह दशा देख मरुभूति की पत्नि वड़ी अप्रसन्न हुई। क्योंकि वह उसकी ओर से उदास सा होगया था और इसलिए उसके स्वार्थ मे बाधा पड़ रही थी। धीरे-धीरे वह अपने जेठ कमठ के प्रेम पाश मे फंस गई।
विपयान्ध प्राणी का मस्तिष्क और हृदय पाप की कालिमा के कारण इतना निर्वल और विवेकशून्य हो जाता है कि वह हिताहित कार्य-अकार्य और बुरा-भतानिहीं सोच सकता। जैसे मेले काच पर प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार विषयी पुरुष के कलुपित चित्त मे कर्तव्य, सदाचार, नीति और धर्म की उज्ज्वल भावनाएँ भी उत्पन्न नहीं होती । वह विवेक से भ्रष्ट होकर अधिकाधिक पतन की ओर अग्रसर होता चला जाता है। "विवेकभ्रष्टानां भवति विनियात. शतमुख." ।जो जीवन की