Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 130
________________ १०० पश्विनाथ भगवान् अजेय हैं। वे विश्ववंद्य है । देव और देवेन्द्र उनके क्रीत दास है। वे अनन्त शक्तियो के भंडार हैं । क्या तुझे ज्ञात नही कि तू पूर्व जन्म का क्रमठ नामक तापस है, मैं तेरी धूनी के लकड़ मे जलने वाला सर्पद और यह महाप्रभु तुझे प्रतिबोध देने वाले और मुझे नमोकार मंत्र का श्रवण कराने वाले वहीं पार्श्व है " ऐस महान उपकारी महापुरुष के प्रति तेरी यह जवन्य भावना और यह निन्य व्यवहार ! खबरदार, भविष्य मे ऐसा कुकृत्म किया तो पूरी खबर ली जायगी।' वरणन्द्र का कथन सुनते ही मेघमाली मानो लज्जा सं गड़ गया। उसमे बोलने का सामर्थ्य न रहा। उसने सारी माया तत्काल समेट ली और प्रभु के चरण-कमलो पर जा गिरा। वह गिड़गिड़ा कर बोला-"नाथ ! आप क्षमा के सागर है। वीतरागता और साम्य-भाव के भण्डार हैं। पतितो को पावन करने वाले परम दयालु है। मुझे नमा प्रदान कीजिए। मैं बड़ा पापी हूँ। मैने अज्ञान और कपाय के वश होकर आपके प्रति जो दुर्व्यवहार किया है उससे मै पश्चाताप की अग्नि में जल रहा हूँ।" वास्तव मे मेघमाली की क्षमा-प्रार्थना व्यर्थ थी। इसलिए नहीं कि उसे जमा नहीं मिली। बल्कि इसलिए कि भगवान् के अन्तःकरण में द्वेप का लेश भी न था। वे पहल-स ही उस पर ज्ञमा-भाव वारण किये हुए थे। भगवान् के हृदय-पटल पर यह भाव सदा अंकित रहते थे: खामेमि सब्बै जीवा, सब्जे जीवा खमंत में । मित्ती मे सब भूएसु, वे मज्झ ण केणई ॥ अन्न से मेवमाली नसा-याचना के पश्चान् अपने स्थान

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