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पाश्र्धनाम
कोई भेद उत्पन्न नहीं कर सकता । कारण स्पष्ट है। राग आदि दोपों को दूर करना सब कालो मे समान है । उन्हें दूर करने का माग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र भी सव कालों मे समान है। धर्म वस्तु का स्वरूप है और वस्तु भौतिक रूप मे त्रिकाल तथा त्रिलोक मे समान होती है अत: उमका स्वरूप भी देश काल के अनुसार परिवर्तन नहीं होता। जब वस्तु स्वरूप
सदैव वही है और उसी का यथार्थ प्रतिपादन तीर्थंकर भगगन् __ करते हैं, तब दो तीर्थकरों के कथन परस्पर विरोधी किस प्रकार
हो सकते है ? ऐसी स्थिति मे गौतम स्वामी और केशी स्वामी के प्रश्नोत्तरो से दोनों तीर्थकरों के उपदेश मे विरोध की कल्पना करना नितान्त अनुचित और असंगत है।
शका-यदि दोनो तीर्थकरों के उपद्देश मे विरोध नहीं था,तो भ०पार्श्वनाथ ने चार महाव्रतों का और भ०महावीर ने पांच महा व्रतो का उपदेश क्यों दिया ? क्या यह उपदेश परस्पर विरोधी नहीं है ?
समाधान-दोनों उपदेशो मे अणुमान भी विरोध नहीं है । एक मनुष्य अठन्नी की विवक्षा करके कह सकता है, कि एक रुपये के दो खंड होते हैं। दूसरा एक अठन्नी और दो चन्नियों की अपेक्षा एक ही रुपये के तीन खंड बना सकता है । इसी प्रकार चार-पाच छः-आदि खंड किये जा सकते है, फिर भी रुपया अठन्नी आदि के स्वरूप मे जरा भी विरोध नहीं होता । इसी प्रकार सर्व विरति के विभिन्न विवक्षाओ से अनेक विकल्प किये जा सकते हैं, पर उनमे विरोध तनिक भी नहीं होता। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश के अनसार ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह दोनो एक अठन्नी मे दो चवन्नियो के समान एक ही विकल्प मे सम्मिलित