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पश्विनाथ
था। वे दोनों को समान समझ कर ग्रहण करते थे। उस समय के सब साध, प्रकृति से अत्यन्त भद्र थे। उनका हृदय कोमल था। हठी विलकुल न थे। अत. पाप लगता तो प्रतिक्रमण करते थे और न लगता तो प्रतिक्रमण नहीं करते थे।
जगत् के जीवों को धर्म-पथ बता कर जव भगवान ने अपनी आयु पूर्ण होने आई देखी,तो वे सम्मेदशिखर पर्वत पर पधारे। वहां पर उन्होने एक मास का संथारा लिया। उनके साथ अन्य तेतीस मुनियों ने भी संथारा लिया। श्रावण शुक्ला अष्टमी का दिन था, विशाखा नक्षत्र था। आसन के कांपने से स्वर्ग से अग- ' णित देव-देवी भगवान की सेवा बजाने और उनकी पावन मुद्रा का अन्तिम दर्शन करने के लिए आये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, जैसे स्वर्गलोक खाली हो गया है और समस्त देवदेवियां मध्यलोक से आ गये है। इसी दिन मध्यलोक का प्रखर प्रकाश अन्तर्हित हो गया । देवाधिदेव पार्श्वनाथ ने शुक्ल ध्यान का आलम्बन किया, शैलेशीकरण किया, योगो का पूर्ण निरोध किया और चौदहवे गणस्थान में पहुंच कर अन्त मे सिद्धि प्राप्त की। तेतीसों मुनियों के चार घातिया कर्म नष्ट हो गये। उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई । और उसके अनन्तर थोड़े ही समय के पश्चात् वे भी परम पद को प्राप्त हुए। __मनष्यो और देवो ने मिलकर भगवान् का निर्वाण-कल्याणक मनाया और सब अपने-अपने स्थान पर चले गये।