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प्रतिबोध
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है । हे जिनेश ! आप जगत् के निस्वार्थ बन्धु हैं । जगत् के नाथ है, जगत् के त्राता हैं, जगत् के पथ-प्रदर्शक हैं । हे जिनेन्द्र ! आप संसार के हितकर है। विविध आधि-व्याधि और उपाधि की धधकती धनी से विध्वंस होने वाले धरिणी के जीवधारियों का उद्धार करने के लिए धर्म रूपी सुधा की धारा बहा रहे है। प्रभो । आपकी वीतरागता चरम सीमा को प्राप्त हो चुकी है। आपके शुभ दर्शनो का सौभाग्य पूर्वोपार्जित प्रकृष्ट पुण्य के बिना नहीं मिलता। हे अशरण-शरण ! आपने हम जैसे प्राणियों पर, जब हम नाग-नागिन के रूप मे धूनी में जल-भुन रहे थे--असीम दया दिखाई थी । आपने अमित महिमामंडित मंगलमय महामन्त्र अपने मुखारविन्द से सुनाया था। उसीके प्रताप से हमें यह संपत्ति प्राप्त हुई है। आपने अपनी करुणा के शीतल कणों की वष्टि हम पर न की होती, तो न जाने हम लोग किस दुर्गतिमे दयनीय दशा का संवेदन करते होते। प्रभो! आपकी इस अनपम असीम करुणा का प्रतिशोध नही हो सकता। हे महाभाग ! हे विश्ववंद्य ! आप को हम पुनः पुनः मन-वचन काय से प्रणाम करते है। जन्म-जन्मान्तर से आपकी भक्ति हमारे हृदय-कमल म सदेव बनी रहे यही हमारी कामना है। यही वर-दान हन पारसे चाहते ह।" ____ बार भगवान् पार्श्वनाथ विचरण करते हुए साथी (सावत्यी ) नगरी में पधारे। वहां भी समवसरण की रचना हुई। प्रभु ने धर्म-देशना दी। धर्मामत का पान करने के बाद अनेक मनोन लाधु :नि धारगा की। प्रगस्तिक गाथापनि नमा नमार से विस्त होकर मुनि-धर्म अंगीकार किया। यह
र त्यसरे पालन में लीभीत कर जाते।