Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 163
________________ पाश्वनाथ का परित्याग कर साध-वेष पहन लिया। हाथ मे पात्रों की झोली ले ली और मुख पर मुख वस्त्रिका वांध ली । बगल मे रजोहरण ले लिया । इस प्रकार वेष धारण कर वह भगवान के संघ से दीक्षित हो गया । उसने विशेप तपश्चर्या और ज्ञान-ध्यान की अाराधना करके अल्प काल से ही कृत्स्न कर्म नय कर मुक्ति श्री को प्राप्त किया। ___एक बार शिवचन्द्र, सुन्दर सौभाग्यचन्द्र और जयचन्द्र नामक चार मुनियों ने भगवान के निकट जाकर, विधिवत् वन्दना आदि व्यवहार करके भगवान से पछा-'भगवन् । आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है । संसार का सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कोई भी ऐसा भाव नहीं है जो आपके केवल ज्ञान मे न झलक रहा हो । अनुग्रह करके हमे वताइए, कि इसी भव मे हम लोगो को मोक्ष प्राप्त होगा या नहीं? प्रभु ने कहा--'तुम चारो इसी भव मे मोक्ष प्राप्त करोग। सर्वज्ञ भगवान ने इसी भव से मोन मे जाने का विधान कर दिया । तब मुक्ति तक ही कैसे सकती है ? जब मुक्ति अवश्यमेव प्राप्त होगी अनशन आदि विविध प्रकार की तपस्या का कष्ट क्यों उठाया जाय ? आनन्द से रह कर ही मुक्ति क्यों न प्राप्त की जाय १ भगवान का कथन अन्यथा कदापि नही हो सकता। ऐसा विचार करके उनके विचार सयम से शिथिल हो गये। कुछ दिनों तक शिथिलाचार सेवन करके उनके मन मे परिवर्तन हो गया। भावी को कोई टाल नहीं सकता। उन्हे इसी भव मे मोक्ष मिलना था अतएव उनके परिणामो मे फिर उत्कृष्ट संयम पालने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने अपनी शिथिलता के लिए पश्चात्ताप प्रकट किया और संयम के आराधन मे विशेष रूप से तत्पर हो गए। अन्त में चारों मुनि कर्मों की जजीर को छिन्न

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