Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 156
________________ प्रतिबोध २३१ प्रतिबोध भगवान् ने अपने शिष्य-मुनियों में से दस मुनियों को गएधर पद पर प्रतिष्ठित किया था। उनके नाम यह है - (१) श्रार्य दत्त (२) आर्यघोष (३) विशिष्ठ (४) ब्रह्म (५) सोम (६) श्रीधर (७) वीरसेन (E) भद्रयश (1) जय और (१०) विजय । इन दस गणधरों को भगवान् ने उत्पाद, व्यय और भौग्य का समास रूप से ज्ञान दिया । गणधर विशेष ज्ञानशाली थे । अतः उन्होंने इस ज्ञान के आधार पर विस्तृन द्वादशांग की रचना कर ससार मे विशेष रूप से ज्ञान का प्रसार किया । वास्तव मे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-सिद्धान्त जैन दर्शन की मूल भित्ति है । इसी सिद्धान्त मे स्याद्वाद का समग्र स्वरूप अन्तर्गत हो जाता है, द्रव्य पर्याय का वर्णन गर्भित हो जाता है। सृष्टि की उत्पत्ति आदि का विवेचन हो जाता है और कार्य कारण का रहस्य भी आ जाता है । इसी सिद्धान्त में प्रकारान्तर से नित्यै - कान्तवाद, अनित्यैकान्तवाद, ईश्वर कर्तृत्व आदि श्रादि मिथ्या मतों का निराकरण भी समन्वित है । अत्यन्त संक्षिप्त शब्दो मे इतने गंभीरतर दर्शन शास्त्र का सत्व खीचकर रख देना भगवान् के वचनातिशय अथवा प्रतिपादन पटुता का अद्भुत निदर्शन है । भगवान् ने साधु, साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना की और इस प्रकार अपने तीर्थंकर नाम कर्म का उदय सार्थक कर जनता को मुक्ति के मार्ग मे लगाया । पार्श्व प्रभु के ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री आर्यदत्त गणधर ने मनुष्यों को उपदेश दिया. कि जो कर्म के उदय के कारण, साधु-धर्म

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