Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 154
________________ धर्म-देशना २३१ जहा महातलायस्त सन्निरुद्ध जलागमे । उस्तिचणा तवणाए कम्मे सोसणा भवे ॥ एवं तु संजयस्सा वि पावकम्मनिरासवे । भवको डिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥ जैसे तालाब को निर्जल करने के लिए पहले नवीन जल का आगमन रोका जाता है, फिर पहले भरे हुए जल को उलीचा जाता है, ऐसी क्रिया करने से तालाब सूख जाता है । इसी प्रकार नवीन आने वाले कर्मों को - आस्रव को संयमी पुरुष अपने संयम के द्वारा निरुद्ध कर देता है और तप के द्वारा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा कर डालता है । इस प्रकार करोड़ों भवों में बंधे हुए कर्म तपस्या से जीर्ण हो जाते है । तपस्या आध्यात्मिक शुद्धि का श्रेयस्कर मार्ग है। साथ ही वह शरीर शुद्धि का भी साधन है । तपस्या अनेक रोगों की अचूक औषधि है । तपस्या से अनेक विस्मयोत्पादक लब्धियो की उपलब्धि होती है । तप समस्त अभीष्ट का साधक, आत्मा का शोधक, विकारों का बाधक और मुक्ति का आराधक है । मुक्ति का चौथा साधन भावना है। मन की शुभ या अशुभ वृत्ति को भावना कहते हैं । यहां मुक्ति के कारणो का प्रकरण होने से शुभ वृत्ति या शुभ भावना को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अशुभ भावना संसार भ्रमण का कारण है और शुभ भावना क्रमश. मोक्ष का हेतु है । दान, शील और तप में भावना अन्वित रहती है । भावशून्य दान आदि मोक्ष के कारण नही होते | दान आदि को शून्य स्थानीय समझना चाहिए और

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