Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 159
________________ पाश्वनाथ जब उनके गण के नायक मुनि, प्रमादवश की हुई भूल का प्रायः श्चित लेने । कहते, तो आगम्तिक मुनि टालमटोल कर जाते थे। वे अपनी भूल को स्वीकार नहीं करते थे। इसी अवस्था मे उन्होंने शरीर का त्याग किया। शरीर-त्याग कर वे चन्द्र-विमान मे चन्द्रदेव हुए। बहुत से लोगो की यह समझ है, कि चन्द्रमा का जो बिन्त्र दिखाई देता है, वही चन्द्रदेव है। किन्तु यह समझ भ्रम-पूर्ण है । गोलाकार जो लफेद चन्द्रमा दिखाई देता है, वह जमीन है। उसमे अनेक देवों का निवास है। वहां रहने वाले सब देवों का अधिपतिदेव, चन्द्रदेव कहलाता है । यह सफेद पृथली, मेरु पर्वत के चारो ओर घमती है । इपके नीचे एफ पृथ्वी काली है। उसे राहु की पथली कहते है । उसमे गहु नामक देवना निवाल करता है। उम के साथ उनके अधीन अक देवता और रहते है। यह जमीन भी गोल और चपटी है । चन्द्र-पृथ्वी के सार-साथ, रा:पृथ्वी भी घनती रहती है। मगर दोनों की चाल बराबर नहीं है । इम चाल के भेद से ही द्वितीया, ततीया चतुर्थी आदि-आदि

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