Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 152
________________ धर्म-देशना २२६ हैं | साधु-साध्वी को दिये जाने वाले दान में विघ्न करने वाला अधम जीव है । भगवान् ऋषभदेव ने पहले के तेरहवे भव में एक मुनिराज को उन्नत भाव से घृत का दान दिया था । इससे उन्हें तीर्थकर गोत्र का बंध हुआ और वे प्रथम तीथकर हुए। बात इस प्रकार है - एक मुनिराज ने आहार का पात्र छोटा रखा था । वे श्रावक के घर आहार लेने गये । श्रावक (भावी ऋषभदेव ) ने कहा -- 'महाराज ! पात्र कुछ बड़ा रखना चाहिए ।' मुनिराज ने कहा-'मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है ।' मगर श्रावक मुनिराज की भक्ति मे तन्मय था । उसने छोटे से पात्र में घी उंडेलना आरम्भ कर दिया । पात्र भर जाने पर मुनिराज ने कहा - 'श्रावक जी । यह क्या कर रहे हो ? देखो घृत व्यर्थ बह रहा है । रुक जाओ । श्रावक भक्ति के उद्रेक में कहने लगा- 'गुरुराज | यह घी मेरा नही आपका ढुल रहा है । मै तो पात्र मे डाल रहा हूँ | पात्र में पहुंचकर आपका हो चुका । श्रत. जो दुल रहा है, वह आपका ही है - मेरा नही ।' इस प्रकार वह घृत डालता ही चला गया । उदार हृदय दानशूर श्रावक ने उस समय उत्कृष्ट भावना से तीर्थकर गोत्र का बंध कर लिया । वह तेरहवे भाव में तीर्थंकर हो आदिनाथ के नाम से विख्यात होकर अन्त में मुक्ति को प्राप्त हुए । मुक्ति का दूसरा साधन, शील है । उसमें ब्रह्मचर्य प्रधान है । दानों मे जैसे सुपात्र और अभयदान उत्तम है । उसी प्रकार सब प्रकार की तपस्याओं मे ब्रह्मचर्य तप उत्तम है । ऐसे तो सभी इन्द्रियो के विषयों का त्याग दुष्कर है किन्तु स्पशनेन्द्रिय का आकषण अत्यन्त दुर्धर है । उसके सामने साधारण मनष्य और

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