Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 151
________________ पार्श्वनाथ आपकी दयालुता वास्तव मे आकाश की भांति व्यापक और सुमेरु के समान निश्चल है। आप संसार मे अनुपम अशरणशरण है। आपकी कीर्ति इस लोक मे चन्द्र-सूय के समान अमर रहेगी और जनता को उच्च प्रादर्श और कत्तव्य का दिव्य संकेत करती रहेगी। आप धन्य है, अतिशय धन्य है। राजा मेघरथ ने इस अभयदान के प्रभाव से तीर्थकर गोत्र का बंध किया । और सोलहवे तीर्थकर हुए। ___ भव्य जीवो । सुपात्रदान भी अभयदान का साथी है । जैसे अभयदान के प्रभाव से जीव चक्रवर्ती वासुदेव तीर्थकर आदि उच्च पद पाते है और अन्त मे निर्वाण को प्राप्त होते है । उसी प्रकार सुपात्र दान से भी निर्वाण की प्राप्ति होती है। जो भव्य मुनि, आर्यिका, श्रावक और सम्यग्दृष्टि को सद्भाव पूर्वक विशुद्ध दान देता है, वह अनेक भावों के संचित कर्मों का नाश करके एक दिन अक्षय सुखों का भागी बन जाता है। दान दरिद्रता का नाश और सौभाग्य का उदय करने वाला है। दान के प्रभाव से दुःख के बादल दूर हो जाते है । इस लोक मे यश और परलोक मे सुख, दान से प्राप्त होता है। दान मे विधि, द्रव्य, दाता और पान के भेद से अनेक भेद हो जाते है । निग्रंथ साधु दान के सर्वोत्कृष्ट पात्र है। श्रावक और सम्यग्दृष्टि भी उत्तम पात्र हैं। मिथ्याष्टि, कर और कुमागेगामी जीव कुपात्र है। उन्हे धर्म बुद्धि से दान न देकर करुणावद्धि से दान देना चाहिए । संसार का प्रत्येक प्राणी अनकम्पा दान का पान हो सकता है। अनुकम्पा-दान देने से भी सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है। जो मिथ्यादृष्टि दान देते हुए को रोकते है, या दान मे अन्तराय लगाते हैं, वे महा अशुभ कर्मो का बंध करते

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