Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 142
________________ समवसरण २१६ . AVAN भी अपना स्थान ग्रहण किया। दीक्षा लेते ही भगवान् को मनःपर्यायज्ञान जैसा दिव्य ज्ञान उत्पन्न हो चका था फिर भी भगवान ने कभी धर्म देशना नहीं दी थी। इसका विशेष कारण था और वह यह, कि केवल ज्ञान की उत्पत्ति से पहले नान अपूर्ण होता है । अपूर्ण ज्ञान से समग्र वस्तु. तत्त्वका यथार्थ संवेदन नहीं होता । वस्तु अनन्त है। एक-एक वस्तु मे अनन्त-अनन्त गण है और एक-एक गण की अनन्तान्त पर्यायें क्रमशः होती रहती है । उन सबको केवल ज्ञान के विना जानना असंभव है । वल्कि एक भी बस्तु पूर्ण रूप से केवल ज्ञान के बिना नहीं जानी जा सकती। इसलिए पागम मे कहा हैजे एगं जाणइ से सत्य जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' अर्थात् जो एक वस्तु को अनन्त गण-पर्याय रूप से जान लेता है वह पूर्ण ज्ञानी होने के कारण समस्त वस्तुओ को जान लेता है और जो समस्त वस्तुओं को जानता है वही पूर्ण रूपेण एक को जान सक्ता है। अतएव एक भाव को पूर्ण रूप से जानने . के लिए भी केवलज्ञान अपेक्षित है । जो यद्वा तद्वा प्ररूपणा नहीं करना चाहता वह आत्मा मे पहले पूर्ण ज्ञान के आविर्भाव के लिए प्रयास करता है। पूर्ण योग्यता उत्पन्न होने के पश्चात् की जाने वाली प्ररूपणा ही पारमार्थिक हो सकती है । इसके अतिरिक्त प्रभु जिस परम पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए देशना देते है, उसका साक्षात् उदाहरण जब तक जनता के सामने न हो तब तक जनता शंकित रह सकती है । अतः प्रभु पहले उस साधना का आचरण करके उसे व्यवहार से लाकर फिर जनताको उसका उपदेश देते है। इससे वह उपदेश अत्यधिक प्रभावशाली हो जाता है, उसके प्रयोग के सम्बन्ध मे किसी प्रकार का संदेह

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