Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 146
________________ २२३ धर्म-देशना ले जाया जाने लगा तो दूसरी रानी ने रोक दिया। उस दिन भी उसे सुन्दर और मनोज्ञ भोजन कराया गया। दूसरी गनी ने उसे पांच सौ रुपये दिये इतना होने पर भी अपराधी के मन में तनिक भी शान्ति न हुई। तीसरे दिन तीसरी रानी ने उसका दण्ड मकवा कर उसे एक सहस्त्र रुपये दिये । चौथे दिन चौथी रानी ने राजा से कहला भेजा कि मेरे दुर्भाग्य का उदय है अत: आपकी कृपादृष्टि से मै सर्वधा वचित हूँ। आपने मुझे अवगणित कर रक्खा है। फिर पहले आपने मुझे एक बर दे रखा है। मै आज वह वर मागती हूँ। मेरी याचना यह है कि उस प्राणदंड-प्राप्त अपराधी को प्राणदंड से मुक्त कर दिया जाय । राजा वचन बद्ध था। उसने चौथी रानी की याचना स्वीकार करके अपराधी को मुक्त करने का आदेश दे दिया। उस समय अपराधी की प्रसन्नता का पारावार न था। उसे जीते जी पुनर्जीचन प्राप्त हुआ। वह मुक्त हो अपने पुत्र आदि सज्जनों से मिला। संयोगवश राजा की कृपादृष्टि फिर उस चौथी रानी पर हो गई। इससे अन्य रानियां उससे जलने लगीं। एक बार उन सब ने मिल कर चौथी रानी का उपहास करना आरम्भ किया। एक ने कहा--'यह रानी तो हो गई, पर रानी का लक्षण इस मे एक भी नहीं है। वेचारे प्राणदंड-प्राप्त उस अपराधी को इसने एक भी दिन भोजन न कराया और न थोड़े-से रुपये ही दिये ।' बात छिड गई। जब बात बहुत बढ़ गई, तो सारा अभियोग राजा के सामने उपस्थित हुआ। बड़े-बड़े रहस्यमय षड्यंत्रों को तत्काल समझ जाने वाला, अत्यन्त विद्वान और वद्धिमान नरेश इस झगड़े से बड़े असमंजस मे पड़ गया। किसे बुरा

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