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धर्म-देशना
पृथ्वी पर झुकाया।
इस उदाहरण से अभयदान की महत्ता भली भांति समझी जा सकती है। सोलहवे तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ ने यह महान् पद अभयदान के ही प्रभाव से प्राप्त किया था। उनका संक्षिप्त दिग्दर्शन इस प्रकार है :
राजा मेघरथ की दयाशीलता सर्वत्र विख्यात हो चुकी थी। वह सदैव इस बात का ध्यान रखते थे, कि उनके किसी व्यवहार से किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचने पाए। इतना ही नहीं उनके राज्य मे भी जीवहिंसा का निषेध था । एक बार देवराज इन्द्र अपनी भरी सभा मे बैठे मध्यलोक का प्रकरण चलने पर इन्द्र ने राजा मेघरथ की दयालुता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। सब देवों ने भी अन्तःकरण से मेघरथ की प्रशंसा में सहयोग दिया। किन्तु दो देवों को इन्द्र की बात की प्रतीति न हुई। उन्होंने स्वयं परीक्षा करके तथ्यता-अतथ्यता का निर्णय करना निश्चित किया। दोनों स्वर्ग से चल दिये। एक ने कबूतर का रूप बनाया और दूसरे ने बाजका भेष बनाया।
कबूतर-रूपधारी देव उड़ता-उड़ता राजा मेघरथ को गोद मे जाकर बैठ गया। थोड़ी ही देर मे बाज भी वहां आ पहुँचा। वह राजा मेघरथ से वोला-"महाराज । आप न्यायप्रिय नरेश है। मेरा शिकार आपके पास आ गया है। कृपा कर मुझे लौटा दीजिये।"
राजा मेघरथ असमंजस मे पड़ गये। शिकार इस बात का है। अतः लौटा देना कर्तव्य है । और शरणागत की प्राण देकर रक्षा करना भी मेरा कर्तव्य है। दो कर्तव्यों मे यह घोर विरोक उपस्थित हुआ है। इस विरोध को किस प्रकार मिटाया जाय ?