Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 145
________________ पाश्वनाथ दान है। भव-भ्रमण संबंधी भचो से अपनी आत्मा को सुरक्षित करना स्व-अभयान है। मनप्य को सनष्य के भय से, विजानीय के भय से. आकस्मिक भय से. आजीविका आदि के भय स, अपयश एवं सत्य आदि के भय से मुक्त करना, इसी प्रकार मनुप्योतर प्राणियों को यथायोग्य निर्भय करना, अभयदान है। यह अभयदान आत्मा को सहज स्वरूप मे-निजानन्द मे ले जाता है। लोक से यश का विस्तार इससे होता है। वसंतपुर की गनी सौभाग्यसुन्दरी ने अभयदान द्वारा विपुल यश उपार्जन किया था। उनकी क्या इस प्रकार है एक बार वसंतपुर के राजा के पास कोई हत्या का असियत्त पाया अभियोग प्रमाणित होने पर राजा ने उस प्राणदंड सुना दिया । तिथि नियत कर दी गई। राज कर्मचारी अपराधी को राज महलों के समीप से ले जा रहे थे। महारानी की दृष्टि उस पर पड़ गई। उसका विपरण और दैत्ययक्त वदन देख कर रानी को दया उपजी । रानी ने कहला भेजा-आज इन अपराधी को प्रालदण्ड न दिया जाय ! मेरी ओर से इसे आज यथेष्ट सुम्वाद भोजन दिया जाय और सौ रुपये भेट मे दिये जाएँ। मिस का सामर्थ्य था जो रानी की मात्रा के प्रतिकृत व्यवहार परता । अपराधी गे सुमधुर पक्शन खिलाये गये परन्तु खाते समय उस यह भी न जान पड़ा, कि गड़ खाता हूँ या गोबर खाता है। उनका चित्त आगे खड़ी हुई मृत्यु की भयंकरता का नग्न चित्र उसने में संलग्त था। उसग समग्र उपयोग उसी ओर सिमट रहा था। जब उनके सामने ये रक्खे गये तो उसने न्पयों की त्रोर ष्टि भी न डाली जैसे अर्थ नोह को उमने मर्वथा जाग दिया हो। दूसरा दिन हुया । जब यह प्राण दण्ड के लिए

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