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धर्म-देशना
२२१ आक्रान्त कर रखा है। ज्ञानावरण कर्म ने अनन्त ज्ञान शक्ति को परिमित, मलिन और विकृत बना दिया है। मोहनीय कर्म के कारण जीव की दयनीय दशा हो गई है। इसी प्रकार अन्यान्य कर्मों ने आत्मा के सर्वस्व के समान समस्त गुणों को स्वरूपच्युत्त वना डाला है।
भव्य जीवो । समझो, समझो । अपने वास्तविक स्वरूप की दृष्टिविक्षेप करो। देखो तुम्हारी अन्तरात्मा कितनी उज्ज्वल है, कितनी प्रकाशमय है, कितनी अद्भुत शक्तियों का पुञ्ज है। ज्ञान-दर्शन का असीम सागर तुम्हारे भीतर तरंगित हो रहा है। तुम अपूर्व ज्योतिस्वरूप हो, चित्-चमत्कारमय हो। अनन्त और असीम अव्यावाध सुख के तुम स्वामी हो। अपने स्वरूप को समझो। अपनी अन्तरष्टि खोलो, होष्ट दूपित होने के कारण तुम्हे अभी पदार्थों जैसा स्वरूप ज्ञात हो रहा है, वह स्वरूप दृष्टि की निर्मलता प्राप्त होने पर सर्वथा निर्मूल दिखाई देगा। सांसारिक पदार्थ जो सुखद प्रतीत हो रहे है, वे वस्तुतः दुखद हैं। आत्मा की भव-परम्परा के कारण हैं। विषय विष है, बन्ध-बान्धव बंधन है, सम्पत्ति विपत्ति है, भोग रोग है. यह दृष्टि का नैर्मल्य प्राप्त होने पर ज्ञात हो जायगा । अतएव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो। सम्यग्ज्ञान का प्रचार करो। अज्ञान जीव का सब से भयंकर रिपु है। उसका उन्मूलन करो। ज्ञान प्राप्त करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय-क्षयोपशम होगा। केवलज्ञान प्राप्त होगा। यही आत्मा की सर्वोकृष्ट संपत्ति है। यही आत्मा का निज स्वरूप है। अतएव भद्र जीवो ! आत्मा के स्वरूप की ओर देखो । समझो, समझो।
दान मोक्ष का प्रथम कारण है। अभयदान सब दानों में श्रेष्ठ