Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 141
________________ २१८ पार्श्वनाथ कर्मों की प्रबल सेना को जीत कर अनन्त चतुष्टय रूपी अक्षय लक्ष्मी के स्वामी बने है और जो अन्तःकरण से आपका शरण ग्रहण करते है वे भी इस लक्ष्मी के पात्र बन जाते है। जिनेन्द्र । आप पतित-पावन है। संसार-सागर मे डूबते हुए प्राणियो के लिए अनुपम यान है । जीवों के लिए कल्याण-मार्ग का प्ररूपण करने वाले परम कृपालु, दीनानाथ, दीनवत्सल है । आपकी जय हो । स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान आपका नीलवर्ण शरीर ऐसा जान पड़ता है, जैसे सुमेरु पर्वत पर सजल जलद हो । वह भव्य जीव रूपी मयूरो को अत्यत आहाद उत्पन्न करता है । आपके मस्तक पर विराजित तीन छत्र रत्न त्रय के परम प्रकप की सूचना दे रहे है। आकाश मे गरजती हुई देव दुन्दुभियां मानो यह घोषणा कर रही है, कि आर ही क्रोध आदि कषायों के पर्ण विजेता है । देव आकाश से गधोदक की वर्षा करके मानो अपने सम्यक्त्व-तरु का रिञ्चन कर रहे है । जाति-विरोधी पशु आपके पुण्य-प्रभाव से वैर-विरोध का परित्याग करके मित्रभाव से पास मे बैठे हुए है । आपको अहिंसा, वात्सल्यता और समता भाव के प्रभाव से उनका घोर विरोध न जाने कहा अश्य हो हो गया है। देव । आपने साधना के कठोर पथ मे प्रयाण करके अपनी असामान्य शक्ति व्यक्त की है और सफलता का सुन्दर आदर्श जगत के समक्ष उपस्थित कर दिया है । आपके पथ का अनुसरण करने वाले सभी प्राणी आपकी ही भाति परमपद प्राप्त करेंगे । नाथ | आपकी जय हो विजय हो । सम्पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से मै आपके चरण कमलो मे प्रणाम करता हू!" । उग प्रकार प्रभु की स्तुति करने के पश्चात् महाराज अश्वसन - अपने स्थान पर बैठ गये । महारानी वामादेवी और प्रभावती ने

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