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समवसरण
सभा मे भला मनुष्य मात्र को क्यों न स्थान प्राप्त होता ? समवसरण की रचना और नर-नारी तथा देव-देवियों के आगमन का दृश्य देखकर उद्यानपाल चकित रह गया । वह भागा-भागा महाराज अश्वसेन के समीप पहुॅचा और प्रभु के आगमन का, समवसरण की रचना का तथा श्रोताओं के दल के दल का समग्र वृत्तान्त सुनाया । उद्यानपाल के मुख से यह कल्याणकारी संवाद सुन कर राजा के अन्तःकरण मे आनन्द का महानद उमड़ पड़ा। उसने मुकुट के अतिरिक्त समस्त आभूषण अपने शरीर से उतार कर उद्यानपाल को शुभ संवाद सुनाने के उपलक्ष मे भेट कर दिये। उसी समय राजा ने अन्तःपुर मे जाकर वामा देवी को यह सुखद संवाद सुनाया और राज कर्मचारियों को प्रभु के दर्शनार्थ जाने की तैयारी शीघ्र कर डालने की आज्ञा दी । इधर अश्वसेन राजा तैयार हो गये, उधर वामादेवी और प्रभावती तैयार होगई। सब लोग राजप्रासाद से प्रस्थान कर उद्यान की ओर चले। जब वे उद्यान के इतने निकट पहुॅच गये, कि समवसरण दिखाई पड़ने लगा तब महाराज सवारी से उतर पड़े। उन्होंने उत्तरासन किया तथा अन्य धार्मिक विधि की । तत्पश्चात् वे समवसरण मे पहुॅच । प्रभु के दर्शन कर महाराज अश्वसेन, वामादेवी और प्रभावती का हृदय आनन्द से भर गया । महाराज अश्वसेन ने प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर इस प्रकार स्तुति की: - "देवाधिदेव ! आज हमारा अत्यन्त अहो भाग्य है, कि आपके समान साक्षात् परमपुरुष-परमात्मा के दर्शन प्राप्त हुए है । आज मेरा जीवन धन्य हो गया, मेरे नेत्र सफल हो गये और मेरा आत्मा
पवित्र हो गया | नाथ ! आप परम वीतराग है । आप घातिया
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