Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 131
________________ केवलज्ञान २०१ पर चला गया । भगवान् के उपसर्ग का अन्त हो गया जानकर धरणेन्द्र भी पद्मावती के साथ अपनी जगह चला गया। भगवान् ने वह रात्रि ध्यानावस्था में वही समाप्त की। केवलज्ञान सूर्गदय होने पर भगवान ने वाराणसी नगरी की ओर प्रस्थान किया। वाराणसी में पहुँच कर नगरी के बाहर एक उद्यान में विराजमान हुए । तेरासी दिन प्रभु ने छद्मस्थ अवस्था में निर्गमन किये । चौरासीग दिन प्रारम्भ हुआ। चैत्र कृष्णा चतुर्थी का दिन और विशाखा नक्षत्र था। भगवान् ने अत्यंत उज्वल ध्यान धारण किया । उस ध्यान के प्रभाव से ससार रूपी वृक्ष के बीन, संसार के जीवो को नाना गतियो मे भ्रमण कराने वाले और दुर्जय मोहनीय कर्म का सर्वथा नय हो गया। मोह रूपी महामल्ल को पछाड़ते ही अन्तर्मुहूर्त के भीतर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों की निष्टी का विनाश हो गया। इस प्रकार चारों धन धातिया कर्मी का अभाव हो जाने से प्रभु मे अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त शक्ति का आविर्भाव हो गया । अव तक भगवान चार क्षायोपशामिक ज्ञानो के धारी थे । अव सव ज्ञान केवल ज्ञान के रूप मे परिणत हो गये । अत. एक केवल ज्ञान ही शेष रह गया। इसी प्रकार समस्त ज्ञायोपशमिक दर्शन केवल दर्शन के रूप में परिणित हो गये । ज्ञान प्रात्मा का असाधारण गुण है, और मति श्रुत आदि जान उस ज्ञान गुण की पर्याय है। केवल ज्ञान रूप पर्याय का आविर्भाव होने से दूसरी पर्यायो का विनाश होगया । ज्ञान सम्बन्धी विवरण इस प्रकार है -

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