Book Title: Parshvanath
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Gangadevi Jain Delhi

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Page 136
________________ २०६ पार्श्वनाथ चल-फिर नहीं सकता । उसके लिए लकड़ी आदि सहारे की आवश्यकता होती है। किन्तु जब वह अनकूल उपचार द्वारा खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त कर लेता है तो उसे सहारे की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार जो आत्मा ज्ञानावरण आदि कर्मों के तीव्र उदय से अत्यन्त हीन-सत्व हो जाता है वह ज्ञानस्वभाव होने पर भी विना दूसरो की सहायता के वस्तु को नहीं जान पाता । अतएव उसे इन्द्रियों की और मन की सहायता लेनी पड़ती है। यही कारण है कि पूर्वोक्त मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय-मन-सापेक्ष है और इसी से उन्हें परोक्ष ज्ञान कहते है। अवधि, मन. पर्याय और केवलज्ञान के समय आत्मा मे ज्ञानशक्ति का अधिक विकास हो जाता है अत इनमे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं होती। यह तनों ज्ञान प्रत्यक्ष है अर्थात् साक्षात् आत्मा से ही उत्पन्न होते है। प्रत्यक्ष ज्ञान भी दो प्रकार का है-विकल प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष । अवधिज्ञान और मन. पर्याय ज्ञान विकल और केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है। विकल प्रत्यक्ष समस्त वस्तुओं को नहीं जान सकते किन्तु सकल प्रत्यक्ष अर्थात् केवलज्ञान तीन काल और तीन लोक के समस्त पदार्थों को एक ही साथ हस्तामलकवत स्पष्ट रूप से जानता है । तीनो का स्वरूप यह है अवधि ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के विना सिर्फ रूपी पदार्थों को मर्यादा के साथ जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। इसके दो भेद है-(१) भव प्रत्यय अवधिज्ञान और (8) क्षयोप

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