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पार्श्वनाथ
पांच ज्ञान
ज्ञान आत्मा का एक धर्म है । वह धर्म आत्मा की तरह ही अनादि और अनन्त है । यद्यपि मोहनीय कर्म और ज्ञानावरण कर्म के उदय, उपशम, क्षय क्षयोपशम के कारण ज्ञान गुण विभिन्न पर्यायो मे परिणत होता है फिर भी वह अपने मूल स्वभाव से कभी नष्ट नहीं होता । ज्ञान आत्मा का असाधारण लक्षण है ।
आत्मा जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म से युक्त होता है तब उसका ज्ञान भी मिथ्याज्ञान होता है । मिथ्याज्ञान मे सत्-असत और हेयोपादेय की विवेचना करने का सामर्थ्य नही होता । सम्यक्त की प्राप्ति होते ही आत्मा की दृष्टि निर्मल हो जाती है और उस समय ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है । सम्यग्ज्ञान मे अपूर्व शक्ति है । मिथ्याज्ञान के द्वारा कर्म - बंधन मे जकड़ा हुआ आत्मा सम्यग्ज्ञान द्वारा ही मुक्त होता है । करोड़ो वर्ष तपस्या करके अज्ञानी जीव जो कर्म क्षीण नहीं कर पाता उन कर्मों का चय सम्यग्ज्ञानी जीव क्षण भर मे कर डालता है । आगम मे कहा है
श्रन्नाणी किं काही ? किं वा नाही छेपावगं १ अर्थात् अज्ञानी जीव बेचारा क्या र सकता है ? वह हिताहित को क्या समझ सकता है ? नहीं ।
पदार्थ को सम्यक् रूप से यथार्थ जानने वाला ज्ञान सम्यखान कहलाता है | ज्ञान के श्रागमों में पांच भेद किये गये है(१) मनिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (-) मन. पर्ययज्ञान