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पार्श्वनाथ भी उसके साथ बंधे रहगे । ऐसी स्थिति में शरीर का त्याग कर देने से कुछ भी लाभ होना संभव नहीं है। मनुष्य का कर्तव्य है, कि जिन शूरता के साथ वह कर्मों का उपार्जन करता है, उसी शूरता के साथ उनके विपाक को भोग करे। अशुभ कर्मों से पिंड छुड़ाने का वही उपाय है । इस उपाय का आलम्बन न करके शरीर का अंत कर देने का विचार करना कायरता है, अविवेक है। इसके अतिरिक्त आत्मघात-जन्य पाप की भयंकरता का भी विचार करना चाहिए। पहले के अशुभ कर्म अात्मघात से नष्ट नहीं हो सकते ओर नवीन नारण माँ का बंध हो जाता है । परिणाम मे कष्टों की मात्रा अत्यधिक बढ़ती है । एक बात और भी है। अनुकूल परिस्थिति में मनुष्य की शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती है। उन शक्तियों का विकान न होकर हाल होता है । प्रतिकृल परिस्थिति में आत्मिक शक्तियों के विधान की पर्याप्त गुवाइश रहती है। हड़ प्रतिज्ञ पुत्प प्रतिकृलतात्री की चट्टानों से टकरा कर कभी निराश नहीं होते। वे अपने लच्य की ओर अधिकाधिक अग्रसर होने जाते है और अपनी अमोघ संक्तय. शक्ति के द्वारा अन्त में समस्त विनों, बाधाओं एवं प्रतिकूलताओं को चूर्ण-विचूर्ण कर डालते हैं । अतएव प्रतिकूलता से भयभीत नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी शक्तियों को संवर्धित करने के लिए उनका स्वागत करना चाहिए और सच्चे योहा की भाँति उन का सामना करना चाहिए । अतएव तुम यह घोर पाप न करो। नमोकार मंत्र. संसार के समस्त मंत्रों में उत्तम और कल्याणकारी हैं। उमका जाप क्रो। विषम दृष्टि का परित्या करो।'
ब्राह्मण ने नुनिराज का उपदेश प्रेम से सुना, समझा और स्वीकार किया। उसने महामंत्र को तत्काल सीख लिग और सन