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छठा जन्म लेशमात्र भी च्यत नहीं होता और जो ग्रहण किये हुये सन्मार्ग में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है, वही कठोर परीक्षा में उत्तीर्ण होता है। और जो इस प्रकार की परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसी को कीर्ति-कामिनी स्वेच्छा से वरण करती है, वही अपने उद्देश्य के चरम भारा को प्राप्त करता है और सिद्धि उसके हाथ का खिलौना बन जाती है। श्री नंदिपेण मुनि अपने संकल्प के पक्के थे। वे इधर-से-उधर और उधर-से-इधर बहुत मे । फिर भी कल्पनीय जल उन्हें प्राप्त न हो सका। कही द्वार बंद मिला कही घर सूना दिखाई दिया, कही प्रासुक जल ही न मिला और कही मिला भी तो सचित्त वनस्पति आदि से स्पष्टमिला। यह सब मुनि के लिए अकल्पनीयथा । तात्पर्य यह,कि वे सर्वत्र घमे,पर कही योग्य पानी न पा सके । अन्त में उदास होते हुए वे वापिस लौटे। देवमुनि के समीप पहुँच कर उन्होने समग्र वृतान्त कह सुनाया।
देवमुनि तमक कर बोला-अरे इतना विलम्ब होगया, जोगये सो वही के हो रहे । लाओ मुझे पानी की शीघ्र ही आवश्यकता है।
नन्दिषण मुनि बोले-"महाराज ' अपराध की क्षमा चाहता हूँ। मैंने अपनी शक्ति भर प्रयत्न किया। वहुत भ्रमण किया। समस्त नगर में चक्कर काटा। पर कल्पनीय जल कहीं न मिला। महाराज आज मेरा भाग्य मंद हो गया । मुझ से आपकी सेवा न बन पड़ी । अव कृपा कर नगर के सन्निकट पधारिये। वहाँ फिर जल की गवेपणा करूँगा।" ।
देवमुनि-'नन्दिपणजी, आपके भाग्य के साथ ही साथ आपका विवेक भी मंद पड़ गया मालूम होता है। देखते नहीं, इस अवस्था मे, मै गमन करने मे अशक्त हूँ । मुझ से एक पैर भी पैदल नहीं चला जाता है।"