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बारह भावना
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में व्याप्त काय से अशुभ कर्म का आस्रव होता है।
यह आलव संसार का प्रधान कारण है। इसी के कारण जीव संसार में भ्रमण करता और अपने असली स्वरूप से वंचित रहता है । मुमुक्षु जीव शुभ योग के आलम्बन से अशुभ योग को हटाते है और शुद्ध भावों के द्वारा शुभास्त्रव का भी विरोध करके अन्त मे निष्कर्मा हो जाते हैं।
(८) संवर भावना पूर्वोक्त प्रास्त्रव के रुक जाने को संवर कहते है। जेसे चारों ओर से पाल बॉध देने पर इधर-उधर से तालाब मे नवीन जल का प्रवेश नहीं हो पाता उसी प्रकार मंवर रूपी पाल नवीन को के आस्रव को रोक देती है । संवर मुक्ति का कारण है। वह उपादेय तत्त्व है।
संबर दो प्रकार का है-(१) द्रव्य संवर और (२) भावसंवर कर्म रूप पुद्गलो का निरोध हो जाना द्रव्य संचर है और संसार की कारणभूत क्रियाओं से विरत हो जाना-सावध व्यापारों का परित्याग करना भावसंवर है।
जैसे वख्तर आदि सामग्री से सजा हुआ पुरुप युद्ध में वाणों से नही भिदता उसी प्रकार संवर शील 'संयमी' महापुरुप भी असंयम के बाणों से नहीं भिद सकता । अतएव जिस कारण से प्रास्रव होने की संभावना हो उसका प्रतिपक्षी कारण उपस्थित करके संवर की साधना द्वारा आरव को रोकना चाहिए जैसेक्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया कपाय को आर्जव से और लोभ को त्याग से रोकना चाहिए | संयमी मुनि निरन्तर समभाव एवं निर्ममत्व भाव से राग-द्वेष का निराकरण करने में