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पार्श्वनाथ
तापस-प्रतिबोध कुमार एक बार महल के छज्जे पर बैठे हुए बनारस के वाजार की बॉकी छवि निहार रहे थे। उसी समय एक ओर से मनुष्यों का एक समूह हाथो मे पत्र-पुष्प-फल आदि लिए हुए बडी उमंग के साथ शहर के बाहर जा रहा था। उसे देखकर कुमार ने
अपने सेवक से उसके विषय मे पूछताछ की। सेवक ने बताया___ 'स्वामी ! आज नगर मे एक बड़े ऊँचे दर्जे के कमठ नामक तापस
पधारे है। वे बड़े तपस्वी हैं। सदा पंचाग्नि तप तपते है । उन्ही की सेवा-पूजा के लिए यह लोग जा रहे है।'
कुमार भी तापस की तपस्या देखने चल दिये। वहां जाकर उन्होने जो देखा उससे बड़ी निराशा हुई। उन्होंने देखाकमठ धनी धधकाये बैठा है । गाजे और सुलफे का दौरदौरा है । दम पर दम लगाये जा रहे है । भक्त लोग
आते है, उसे गांजा आदि भेट करते है और गाजे का गुल भक्ति के चिन्ह स्वरूप लेकर अपने को कृतार्थे समझते है। तापस की लम्बी-लम्त्री जटाएँ उसके सिर को चारों ओर से ढके हुए है और नशे के कारण उसकी लाल-लाल आखे बड़ी डरावनी सी मालम होती है। कुमार ने अपने अवधिज्ञान से एक बात और जानी। वह यह कि तापस की धूनी मे जो मोटा-सा लकड जल रहा है उसमे एक सर्प-सर्पिणी का युगल जलता हुआ तडफड़ा रहा है। यह जानकर कुमार के हृदय मे तीव्र विपाद हुआ । उन्होंने तापस से कहा 'याप वड़ा अनर्थ कर रहे है धर्म के बदले घोर अधर्म का आचरण कर रहे है । जनता को कुमार्ग की ओर ले जा रहे है। आप स्वय दुर्गति मे जाने की तैयारी कर रहे है और दूसरों को भी अपना साथी बना रहे हैं।'