________________
ना और दशवां जन्म
भद्रशीला, कोमल हृदया, धर्म परायणा और वत्सलता की मूर्ति थी। दोनों एक-दूसरे के अनकल, सहायक और सखा थे। दोनो मे परस्पर प्रगाढ़ और विशुद्ध प्रेम था। वामादेवी अपनी विद्वत्ता
और कुशलता से महाराज की राज-काज में भी यथायोग्य सहायता करती थी। दोनों एक-दूसरे को पाकर सन्तुष्ट , सुखी और सम्पूर्ण थे। ___जगत् में जो वैचित्र्य राज्ग-रंक, सम्पन्न-विपन्न आदि मे देखा जाता है, वह निष्कारण नहीं है । प्रत्येक कार्य, कारण से ही उत्पन्न होता है, यह सर्व विदित सिद्धान्त है। अतएव इस विचित्रता का भी कारण अवश्य है और पर्वोपार्जित अहष्ट के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं हो सकता । कई लोग कहते है कि सम्पत्ति विपत्ति आदि परिस्थिति उत्पन्न करती है। किन्तु ऐसी परिस्थिति या संयोग क्यों उत्पन्न होते है ? सब के सामने एक सी परिस्थिति क्यों नही होती ? इन प्रश्नो का समाधान उन के पास नही है। इनका ठीक-ठीक समाधान तो कर्म-सिद्धान्त ही कर सकता है । जिसने पूर्व जन्म मे पुण्य का उपार्जन किया है वह सम्पन्न कुल मे और अनुकूल संयोगों में उत्पन्न होता है और जिसने अशुभ कृत्य करके मलिन अदृष्ट का उपार्जन किया है वह विपन्न परिस्थिति और प्रतिकूल संयोगों में उत्पन्न होता है । प्रस्तुत चरित को अवधान से अध्ययन करने पर यह सत्य एक दम स्पष्ट हो जाता है । मरुभति के जीव ने अनेक जन्म धारण करके अपनी पुण्य रूपी सम्पत्ति की खूब वद्धि की है। वह उत्तरोत्तर भवो मे निरन्तर उसे बढ़ाने मे उद्योगशील रहा है। उसके इसी शुभ अदष्ट के कारण वह इच्वाकु जैसे उत्तम कुल मे महाराज अश्वसेन के राहा अवतरित हो तो उचित ही है ।