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छठा जन्म
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मे रहकर बड़े हुए है, कभी-कभी जो महान् अन्तर दिखाई पड़ता है उसका कारण पूर्व अदृष्ट के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? तभी तो कहा है
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रङ्क' करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च । धनिनं निर्धनञ्चैव, निर्धनं धनिनं विधिः ॥ कुबेर, तुम अपने पूर्व - उपार्जित पुण्य के परिपाक से राजघराने मे उत्पन्न हुए हो। उसी पुण्य के फल से राजसी वैभव का उपभोग कर रहे हो । यदि पहले की यह कमाई न होती तो इस जन्म में तुमने कितना पुरुषार्थ किया है जो इस वैभव को प्राप्त कर सके ? तुम्हारे हुक्म वजाने वाले इस किंकर को यह वैभव क्यों न प्राप्त हुआ ? क्या यह तुमसे भी कम श्रम करता है ? अब तुम भली भाँति समझ सकते हो कि आत्मा है, परलोक हैं, पुण्य पाप है, उनका फल है ।"
मुनिराज के इस प्रमाणपूर्ण और तर्कसंगत उपदेश को सुन कर कुबेर का कायापलट हो गया। अब तक उसके हृदय मे जो भ्रान्ति घुसी थी वह सहसा छिन्न-भिन्न हो गई । सूर्य का उदय होने पर जैसे अंधकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार मुनिराज के वचनों से उसका अज्ञान तिरोहित हो गया । उसके हृदय मे सत्य धर्म के अंकुर उत्पन्न हो गये । मुनिराज के प्रति उसके अन्तःकरणमे असीम श्रद्धाका अविर्भाव हुआ । वह हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर बोला- भगवन् ! आपका भवभय भंजक उपदेश सुनकर मै कृतकृत्य हुआ । मैने अज्ञान और कुसंस्कार के आधीन होकर जो विनयपूर्ण व्यवहार किया है। उसके लिये से क्षमा याचना करता हूँ । आप क्षमा के सागर है । शत्रुओ पर भी आपके अन्तःकरण रूप आकाश से क्षमा-जल की वर्षा होती
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हृदय