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छठी जन्म
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अभिलापीको आत्मा की ओर उन्मुख होना चाहिए । मोह आदि विकार ज्यों-ज्यों शान्त होते जाते हैं, त्यों-त्यों कर्मों की शक्ति का ह्रास होता जाता है और ज्यों-ज्यों कर्मों की शक्ति क्षीण होती है, त्यों-त्यों आत्मिक आनन्द का अविर्भाव होता जाता है । अन्त मे आत्मा जब अपनी साधना द्वारा सर्वथा वीतराग और निष्कर्म होता है, तो अनन्त सुख का सागर उमड़ पड़ता है । ज्ञानी जनों ने स्वयं यह साधना की है, और उसका उपदेश भी दिया है । साधना के विकासक्रम को भी उन्होंने सर्वविरति और देशविरति विकल्पों द्वारा समझाया है । भव्य जीवो ! आप लोग अनादिकाल से इस मोह के प्रपंच में फॅसे हैं | अब आपको इस प्रपंच से निकलने की पूर्ण सामग्री प्राप्त है । अतः ऐसा प्रयत्न करो, कि शाश्वत सुख की प्राप्ति हो ।
मुनिराज का उपदेश सुनकर, लोग अत्यन्त आनंदित हुए । कुबेर यह उपदेश सुन रहा था । वह कहने लगा- वृथा समय वर्बाद हुआ । मुनिजी ने जो कुछ भी कहा, सब मिथ्या है, कल्पना मात्र है । मुनिजी का सारा उपदेश, आत्मा को केन्द्र बना कर चला है । पर वास्तव मे आत्मा कुछ है ही नही । होता तो घट-पट आदि पदार्थों की भांति वह इन्द्रियगोचर क्यों न होता ? कभी किसी ने आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं किया । फिर कैसे उसका अस्तित्व स्वीकार किया जाय ? यह जो पुतला दिखाई दे रहा है, सो पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश इन पाच भूतो के संयोग से बना है। मरने पर पांचों भूत अपनी-अपनी जाति मे मिल जाते है, और सारा खेल खतम हो जाता है । न कहीं परलोक है, न परलोक मे जाने वाला कोई पदार्थ ही है । ऐसी अवस्था में दान-य, धर्म-कर्म, जप-तप आदि क्रियाएँ केवल