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पार्श्वनाथ
और विजली की क्षणभंगरता को देखकर राजा के हृदय में । संसार की अनित्यता का चित्र अंकित हो गया। वह मानो अब तक स्वप्न देख रहा था और अब यकायक जाग पड़ा । उसे ज्ञान, हो पाया। वह सोचने लगा-"ज्ञानी जन सच कहते हैं कि धन, यौवन के मद में फला नहीं समाता, अपने सवल, सुन्दर
और स्वस्थ शरीर पर इतराता है वही कल अर्धमृतक-सा बना होकर मानों हाड़ों का पिंजर बन जाता है। उसके शरीर का सुन्दरता को जरा-राक्षसी जर्जरित कर देती है, वुढ़ापा वल को निगल जाता है और स्वस्थता की इति-श्री हो जाती है। इसी प्रकार कल तक जो धन-कुवर था वही आज भाग्य प्रतिकूल हान पर वेर वीन कर उदरपर्ति करता है। आज जो जमीन मे धन गाड़ता है वही कल खोदने पर उसे कोयलों के रूप मे पाता है। आज जो भड़कीला वेप धारणकर बड़े ठाठसे सजे हुए सुन्दर स्थ पर बैठ कर निकलता है वही कल रथी (अरथी) पर लेट कर निकलता है। आज जो विषय-भोग पीयप से प्रतीत होते हैं वही कल हलाहल विष के रूप में परिणत हो जाते हैं। प्रत्येक प्राणा के सिर पर मृत्यु चील की भांति मंडराती रहती है और अवसर पाते ही झपट्टा मारती है। बड़े-बड़े शक्तिशाली योद्धा, यहां तक कि देवता और देवेन्द्र भी मृत्य की धाक से कांपते रहते हैं। फिर वेचारे साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं ? मानव जीवन जल के बुलबुले के समान क्षण-विनश्वर है। जब मृत्यु का श्रागमन होता है तो न परिवार सहायक होता है न धन-सम्पान्त ही रक्षा कर सकती है। सुखोपभोग के समस्त साधन यहीं पड़े रहते है और आत्मा अपने किये हुए पुण्य-पाप के साथ अकेला चल देता है। अतएव विवेकशील व्यक्ति को चाहिए कि