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पहला जन्म
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सकते है । मरुभूति के सामने भी यही दुविधा उपस्थित थी । एक ओर अपनी प्रतिष्ठा का खयाल था, अपने भाई और अपनी भार्या के अपमान का प्रश्न था और दूसरी ओर नीति और धर्म की प्रतिष्ठा थी । वह यदि अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करता है तो नीति-धर्म की प्रतिष्ठा भंग होती है और यदि नीति-धर्म की प्रतिष्ठा की रक्षा करता है तो अपनी प्रतिष्ठा भंग होती है, साथ ही आत्मीय जनों को भी हानि पहुँचती है । इस विरोधी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए ? उसने विचार किया और नीति-धर्म की प्रतिष्ठा को सर्वोच्च समझ कर उसकी रक्षा करने का निश्चय किया । उसने सोचा- 'आज यदि मै चुपचाप इस भ्रष्टाचार को सहन कर लूंगा तो यह धीरे-धीरे अधिक फैलेगा और इसके विषैले कीटाणु सारे समाज को क्षत-विक्षत करके नष्ट भ्रष्ट कर डालेगे । इस प्रकार अनीति और धर्म का प्रसार होगा तथा धर्म और नीति की प्रतिष्ठा नष्ट हो जायगी । अतएव मेरा कर्त्तव्य है कि मै अपनी प्रतिष्ठा को धक्का लगा कर भी, अपने भाई और भार्या को संकट मे डाल कर भी धर्म-नीति की रक्षा करूँ । यदि देखा जाय तो इस रहस्य के उद्घाटन से मेरी वास्तविक प्रतिष्ठा का विनाश भी नहीं होता है और आत्मीय जनों को भी सुशिक्षा मिलने के कारण उनका सुधार ही होगा ।'
कितने उदार विचार ! कैसा उच्च आशय है ! धर्म और नीति के प्रति प्रगाढ़ अनुराग रखने वाले महापुरुष ही इस प्रकार का सत्साहस करते हैं और कोप के प्रसंग पर भी पापी जनों पर करुणा के शीतल करणो की वर्षा करते है ।
राजा इस पापाचार की कहानी सुन कर चकित रह गया । उसने अपने कर्मचारियो को आदेश दिया और उन्होंने जा कर