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परिच्छेद.] भवदत्त और भवदेव. देव' अपनी वधू नागिलाकाही हृदयमें ध्यान करता रहता है, इस प्रकार 'भवदेव' ने भाईके उपरोधसे बारह वर्षतक सशल्य दीक्षा पाली परंतु नागिलाका ध्यान हृदयसे न गया, महर्षि 'भवदत्त' एक दिन अनशन पूर्वक काल करके सौधर्म देव लोकमें महर्धिवाला देव जा बना । अब 'भवदेव' की कुछ आशा लता सफल होनेलगी, भाईके काल कर जानेपर 'भवदेव' मनमें विचारता है कि नागिला मेरे ऊपर बड़ी प्रेमवाली है और मैंभी उसे चाहता हूँ परंतु अति कष्टदायक दोनोंका विरह होरहा है, मैं इस दुष्कर दीक्षा व्रतके कष्टसे इतना दुःखित नहीं जितना प्राणप्यारी 'नागिला' के विरहसे दुखी हूँ। मेरा भाव विलकुल दीक्षा लेनेका न था मगर भाईके उपरोधसे लेनी पड़ी सो तो अब काल कर गये। _अब मुझे इस व्यर्थ कष्टसे क्या अब तो बिचारी 'नागिला' की जाकर खबर लूँ न जाने बिचारी निराधार 'नागिला' हिमसे संतप्त हुई कमलनीके समान तथा ग्रीष्मके तापसे कुमलाई हुई लताके समान किस प्रकार समय व्यतीत करती होगी? आश्चर्य है कि मैं उस बिचारीसे दिल खोलकर दो बातें तकभी न कर सका, खैर यदि अभी भी उस प्राणप्यारी, मृगाक्षीको जीती हुई जा पाऊँ तोभी गृहस्थ संबंधि सुखोंका कुछ अनुभव करूँ, इस प्रकारके संकल्पविकल्प करके 'भवदेव' वृद्धसाधुओंसे विनाही पूछे गच्छसे बाहर निकल पड़ा और शीघ्रही अपने मनोरथ पूर्ण करनेके लिए सुग्राम गाँवमें जा पहुँचा, गाँवके बाहर भगवद्देवका एक प्राचीन मंदिर था 'भवदेव' उस मंदिरके समीपही ठहर गया, कुछ देर बाद एक बूढ़िया ब्राह्मणीके साथ वहांपर एक युवती स्त्री आई और प्रथम मंदिर में दर्शन कर पश्चात् 'भवदेव' मुनिको