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परिशिष्ट पर्व. [सातवाँ.. अनर्थ अपनी माताकेही आग्रहसे किया था वरना उसकी इच्छा ऐसा अनुचित कार्य करनेकी न थी । संदूक जलधारामें इंसके समान बहता हुआ प्रातःकालके समय 'शौर्यपुर' नगरके पास पहुँचा, दैवयोगसे दो साहूकार उस वक्त यमुनाके किनारे स्नान करनेको आये हुवे थे, उन्होंने उस संदूकको देख कर पकड़ लिया और खोल कर देखा तो उसके अन्दर बड़ेही मनोहर दो बालक निकले, वे साहूकार दोनोंही निरपत्य थे अत एव एक लड़की और एक लड़केको लेकर खुशी मनाते हुवे अपने अपने घरको चले गये । उन बालकोंके हाथमें जो नामांकित मुद्रिकायें थीं उनसे उन्होंका 'कुबेरदत्त' और 'कुबेरदत्ता' यह नाम ज्ञात होगया था, उन दोनों बालकोंकी पालना पोषना के साहूकार बड़ेही प्रयत्नसे करते थे, इस लिए वे बाल्यावस्थाको अति क्रमण करके क्रमसे योवनावस्थाको प्राप्त हुवे और सांसारिक सर्व कलाओंमें शीघ्रही प्रवीण होगये । मातापिताओंने उनके योग्य वर न देखकर आनन्दपूर्वक उन दोनोंकाही परस्पर विवाह कर दिया, अब 'कुबेरदत्त' और 'कुबेरदत्ता' अपने समयको सानन्द व्यतीत करते हैं । एक दिन मध्यानके समय दोनोंही दंपति सारफाँसे खेल रहे थे उस वक्त 'कुबेरदत्ता' की एक सखीने 'कुबेरदत्त' के हाथसे उसके नामांकित मुद्रिकाको उतारके 'कुबेरदत्ता' के हाथमें दे दी, अपने हाथमें प्राप्त हुई मुद्रिकाको देख कर 'कुबेरदत्ता' सविस्मय विचारमें पड़ गई क्योंकि उसकी मुद्रिका भी इसी नमूनेकी थी 'कुबेरदत्ता' विचारती है कि ये मुद्रिकायें बड़ेही प्रयनसे घड़ी गई हैं और किसी विदेशकीही बनी हुई मालूम होती हैं । इन मुद्रिकाओंका एकसाही आकार और एकसीही लिपि है इस लिए. इससे वह