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परिच्छेद.] सपरिवार जंबूकुमार की दीक्षा और निर्वाण.
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यह सुनकर राजा अपने मनही मन विचार करने लगा कि धन्य है इन नगरवासि जनोंको जो गणधर भगवानको वन्दन करनेके लिए इतनी जल्दी कर रहे हैं, मैं जाग्रित होकर भी निद्रावस्था में पड़े हुएके समान हूँ जो उन्हें यहां पधारे हुओं को भी मैं जान न सका । खैर अब विचारोंसे सरा, अब तो मुझे भी शीघ्री वहां जाकर गणधर भगवानको वन्दन करना उचित है, क्योंकि ये महात्मा अप्रतिबद्ध होते हैं और पवनके समान एकत्र स्थायी भी नहीं होते । यह विचार कर हर्षोत्कर्ष मनवाले राजा ' कूणिक' ने सिंहासन से उठकर शशीकिरणों के समान श्वेत वस्त्र पहनके जगमगाती जोतवाले मोतियों के कुण्डल कानों में धारण किये और लावण्यरूप नदीके झागों (फेनों) के समान विमल मोतियोंका हार कण्ठमें धारण किया, अन्य भी मुकुटादि राजचिह्न आभूषणों से विभूषित होकर राजा कल्प शाखी के समान शोभने लगा । कल्याणका कारणभूत और शत्रु लोगों को अ'भद्र' नामा हाथीको सजवाकर राजा 'क्रूणिक कल्याणदायक उसपे सवार होगया, उस वक्त राजा 'क्रूणिक' इन्द्रकी शोभाको धारण करता था, भद्र नामा हाथी भी अपने गण्डस्थलोंसे मद जल वर्षाता हुआ और गर्जारव करता हुआ वर्षाकालके मेघ के समान शोभने लगा । हाथी के चारों ओर हजारोंही घोड़ेसवार चल पड़े और मंगलके सूचक अनेक राजवाजिन्तर बजने लगे, बाजोंके शब्दकी प्रतिध्वनिसे आकाश शब्दमय होगया । कुछ अरसेमें गणधर भगवान श्रीसुधर्मास्वामिके चरणकमलों से पवित्र उद्यान भूमिमें राजा सपरिवार जापहुँचा, हाथीवानने हाथीको बैठा दिया, राजाने हाथीसे नीचे उतरके जूते उतारे और छत्र चामरादि राजचिह्न दूर करके गणधर भगवान श्री
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