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परिच्छेद.] सपरिवार जंबूकुमारकी दीक्षा और निर्वाण. १७१ इनकेही अन्दर निविष्ट कर दिया है क्योंकि तेजके प्रभावसे हम इनका रूप भी यथार्थ नहीं देख सकते और इस महामुनिके मुखचंद्रमाको देखकर मेरा हृदय समुद्रके समान बढ़ता हुआ अत्यन्त प्रीतिको धारण करता है और ऐसा मन होता है कि आंखें निमेष (यानी आंखोंको न टिमटिमाकर सदैव इनकी ओर एकाग्र दृष्टिसे देखता रहूँ ।) गणधर भगवान श्रीसुधर्मास्वामिने यह सुनकर राजा कूणिकको जंबूस्वामिका पूर्वभव वृत्तान्त कह सुनाया, जैसे पहले भगवान श्रीमहावीरस्वामिने राजा श्रेणिकको सुनाया था । भगवान सुधर्मास्वामी बोले-राजन् ! पूर्वभव कृत तपके प्रभावसे इस महात्माका इतना तेज, रूप, सौभाग्यादि है । यह महामुनि अन्तिम देहधारी और अन्तिम केवली होकर इसी भवमें मोक्षपदको प्राप्त होगा और इसके मोक्ष जानेपर मनः पर्यव ज्ञान १, परमावधि ज्ञान २, आहारक शरीर लब्धि ३, पुलाक लब्धि ४, जिनकल्प ५, क्षपकश्रेणि ६, केवलज्ञान ७; पाँच प्रकारके चारित्रमेंसे ऊपरके तीन भेद हैं यथाक्षात चारित्र ८, परिहार विशुद्धि चारित्र ९ और सूक्षम संपराय चारित्र १० । इनमेंसे जो यथाक्षात चारित्र है, इस चारित्रके विना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता (यानी यथाक्षात चारित्र होनेपरही केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं और केवलज्ञानधारी महात्माको सदैव यथाक्षात चारित्र होता है) ये सब मिलकर दश वस्तुयें इस महात्माके मोक्ष जानेपर भरतक्षेत्रमें विच्छेद होजायँगी । यानी जंबूस्वामिके बाद इन वस्तुओंमें से किसीको भी कोई वस्तु प्राप्त न होगी । यह सुनकर राजा 'कूणिक' गुरुमहाराजको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर सपरिवार चंपापुरीको चला गया।
गणधर भगवान श्रीसुधर्मास्वामी भी अपने शिष्य परि