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परिशिष्ट पर्व. [सोलहवा उलटे मार्गपे चला रहे हो, बस आजसे तुम मेरे गुरु नहीं बल्कि कट्टर शत्रु हो, जो मुझे आजन्म विश्वास देकर ठगा, इस वक्त तुम नितान्त शिक्षाके योग्य हो या तो असली तत्त्व बता दो वरना अभी इस तलवारसे तुमास शिर उड़ा देता हूँ क्योंकि दुष्ट आदमीके मारनेमें उतना पाप नहीं जितना अधर्म सेवनसे होता है, यह कहकर 'शय्यंभव' ने म्यानसे झट तलवार खींच ली । जिस वक्त 'शय्यंभव' ने क्रुद्ध होकर उपाध्यायको मारनेके लिए म्यानसे तलवार निकाली थी उस वक्त 'शय्यंभव' ऐसा मालूम होता था मानो उपाध्यायकी मृत्यु पत्रिका लेकर साक्षात यमराजका दूतही आ गया। 'शय्यंभव' को इस प्रकार क्रोधित देखकर उपाध्यायजीका कलेजा उछलने लगा और होश हवाश उड़ गये। उपाध्यायजी मनमें विचारने लगे यदि इस वक्त मैं असली तत्त्व न बताऊँगा तो अवश्यमेव यह द्विज मेरे माणोंका अपहार क्षणभरमेंही कर डालेगा, अब असली तत्त्व बतलानेका ठीक समय उपस्थित हुआ है क्योंकि वेदोंमें भी यह कहा है और हमारा आम्नाय भी यही है कि
___ कथ्यं यथातथं तत्त्वं शिरच्छेदे हि नान्यथा ।
अर्थात् जब अपनी जानपर आबने और सिरछेदन होनेही लगे तबही सत्य वस्तुका निरुपण करना अन्यथा नहीं, इस लिए. अब तो इसे यथातथ्य तत्त्व बतलाकर अपने प्राणोंका रक्षण करना चाहिये, जीता हुआ आदमी अनेक प्रकारके कल्याणकारि रस्ते देख सकता है । यह विचार कर अपनी आत्माकी रक्षा करनेके लिए उपाध्यायजी बोले-भई ठहरो मैं अभी तुम्हें असली तत्त्व बतलाता हूँ, देखो यह जो यज्ञमंडपमें स्तंभ है इसके नीचे अईद्देवकी प्रतिमा दबी हुई है और नीचे दबी हुई