Book Title: Parishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 189
________________ परिच्छेद.] शय्यंभवसूरि और मणकमुनि. १७५ हुआ वही पूर्वोक्त श्लोक बोला- जिसे हम फिरसे यहां लिख देते हैं अहोकष्ट मोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि । अहोकष्ट महोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि ।। जिस वक्त मुनियोंने पीछे वलते हुए पूर्वोक्त श्लोक बोला या उस वक्त यज्ञके करानेवाला ' शय्यंभव' नामा ब्राह्मण यज्ञ वाड़े के दरवाजेही खड़ा था, अत एव उसने जैन मुनि - योंका कहा हुआ श्लोक ध्यानपूर्वक सुना था । , 'शय्यंभव' उस श्लोकको सुनकर इस विचारमें पड़ गया कि उपशम प्रधान ये जैन महात्मा कभी भी मृषा भाषण नहीं करते अत एव धर्मतत्त्वमें मेरा मन संदिग्ध होता है क्योंकि ये महात्मा कहते हैं कि कष्टके सिवाय इसमें (यज्ञमें) कुछ भी तत्त्व मालूम नहीं होता और मैं तत्त्व समझकर यह यज्ञादि अनुष्ठान कराता हूँ । इसमें कुछ न कुछ अवश्य भेद रहा हुआ है, चलूँ उपाध्याय - जीसे इस बातका निर्णय करूँ, इस प्रकारकी विचार तरंगों में लीन होकर 'शय्यंभव' द्विज उपाध्यायके पास गया और उपाध्यायसे धर्मतत्त्व पूछा, उपाध्यायजीने कहा- 'वेद' से उत्कृष्ट कोई तत्त्वही नहीं है । ' शय्यंभव' क्रोधसे आंखें लाल करके बोला- हूं मैं जान गया हूँ, आज तक तुमने मुझे दक्षिणा के लोभसे वेदको तत्त्व बतलाकर यज्ञादि अनुष्ठान कराकर खूब ठगा है, रागद्वेष रहित शान्तात्मा और सबपर समान दृष्टि रखनेवाले जैनमुनि कदापि झूठ नहीं बोल सकते क्योंकि वे किसी प्रकारका परिग्रह नहीं रखते बल्कि अपने शरीरपर भी निर्ममत्त्व रहते हैं, उनके और तुमारे कथनमें जमीन आशमानका भेद नजर आता है, अब एव इसी से मालूम होता है कि दक्षिणा आदिके लोभ से तुम मुझे

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