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१७४ परिशिष्ट पर्व.
[सोलहवाँ. किया जाता है, श्री प्रभवस्वामिने अपने श्रुत ज्ञानबलसे राजगृह नगरमें आसन्न भव्यत्व है जिसका (यानी लघुकर्मी) और वत्सकुलोद्भव श्री ‘शय्यंभव' नामा द्विज (ब्राह्मण) को यज्ञ कराते हुए देखा । श्रीप्रभवस्वामी अपने शिष्य परिवार सहित विहारकर राजगृह नगरमेंही आ पधारे और गौचरीका (यानी भिक्षाका) समय होनेपर दो मुनियोंको श्रीप्रभवस्वामिने आज्ञा दी कि अमुक ठिकाने यज्ञ होरहा है तुम उस यज्ञके वाड़ेमें जाओ
और वहां जाकर धर्मलाभ आशीर्वाद दो, जिस वक्त यज्ञकारक लोग तुमारे सामने हो कुछ बोलें तो तुमनें पीछे वलते हुए याँ कहना- अहोकष्ट महोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि ।
- अहोकष्ट महोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि ॥१॥ ___ यह शिक्षा देकर गुरुमहाराजने गौचरीके समय उन दोनों मुनियोंको यज्ञके वाड़ेमें भेजा । उस वक्त यज्ञका वाड़ा यज्ञकारक लोगोंने यज्ञ सामग्रीसे संपूर्ण किया हुआ था, दरवाजेपर आम्रके पल्लओंकी मालायें बांधि हुई हैं और अनेक प्रकारकी धजायें भी लगाई हुई हैं, यज्ञमें होम करने योग्य अनेक बस्तुओंसे चगेरियां भरी रक्खी हैं, यज्ञस्तंभके साथ एक बकरा होम करनेके लिए बँधा हुआ है, ब्राह्मण लोग सामिधेनी मंत्रका जाप कर रहे हैं और वेदीके मध्यमें प्रदीप्त अनि जल रहा है, ऐसे अवसरमें गुरुमहाराजकी आज्ञा पाकर वे दोनों मुनि वहांपर जा पहुंचे और धर्मलाभाशीर्वाद देकर कुछ देर ठसके, जब यज्ञकारक सब लोग उन मुनियोंकी ओर बितर बितर देखने लगे तब उन मुनियोंने पीछे फिरते हुए गुरुमहाराजका सिखलाया