________________ 184 परिशिष्ट पर्व. [सोलहवाँ. णक' को दीक्षा दे दी और दीक्षा देकर इसकी आयु कीतनी लंबी है यह जाननेके लिए उन्होंने श्रुतज्ञानमें उपयोग दिया / श्रीशव्यंभवनारे अपने श्रुतज्ञान वलसे 'मणक' की 6 छः महीनेकी आयु देखकर विचारने लगे, अत्यल्पायुवाला यह बालमुनि किस तरह श्रुतज्ञानको धारण करेगा और विना ज्ञान इसकी आत्माका उद्धार किस तरह होसकता है ? सिद्धान्तमें कहा है कि अपश्चिमोदशपूर्वी श्रुतसारं समुद्धरेत् / चतुर्दशपूर्वधरः पुनः केनापि हेतुना // अर्थात् अपश्चिम यानी अंतिम दश पूर्वधर श्रुतज्ञानके सारका उद्धार करे और चतुर्दश पूर्वधारी किसी कारण पड़नेपरही श्रुतज्ञानका उद्धार करे अन्यथा नहीं, अब मणमुकनिको प्रतिबोध करनेका कारण उपस्थित हुआ है, इसलिए मुझे भी इसके निमित्त श्रुतका उद्धार करनेका समय आया है, यह विचार कर श्रीशय्यंभवमूरिने नवमें पूर्वमेंसे विकाल समयमें उद्धार करके दश अध्ययन गर्भित 'दशवैकालिक' नामका एक ग्रंथ रचा, दशवकालिक नाम रखनेका यह हेतु था कि दश अध्ययन गर्मित और विकाल समयमें रचना की गई थी इसीसे दशवैकालिक नाम रक्खा गया, इस ग्रंथका पठन पाठन आज भी जैन साधु साध्वियों में प्रथमसेही किया जाता है, इसमें साधुका आचार दिखलाया है, उसमें भी आहार निहारके लिए बहुत कुछ विवेचन किया है, दशवकालिक ग्रंथकी रचना कर निग्रंथ शिरोमणि और कृपाके समुद्र श्रीशय्यंभवमूरिन मणकमुनिको प्रेमपूर्वक पढ़ाया / 'मणकमुनि' दशवकालिक सूत्रको पढ़ता हुआ साधुके आचारको जानकर गुरुमहाराजकी तथा अपनेसे बड़े