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परिच्छेद.] सपरिवार जंबूकुमारकी दीक्षा और निर्वाण. १६७ चाहते, बल्कि हम भी इस असार संसारको छोड़कर तुमारे साथही दीक्षा लेंगे । 'जंबूकुमार ' के माता-पिता आदि स्वजनोंने अर्थिजनोंको दान देना शुरू किया और 'जंबूकुमार' भी स्नान करके दीक्षाके योग्य वस्त्राभूषण पहनने लगा। दोनों तरफ से उत्सवका पार न रहा, दीक्षामहोत्सवमें जो कोई भी 'याचक' जिस वस्तुकी याचना करता है उसे वही वस्तु दीजाती है, उस वक्त 'जंबू'कुमार' दान देता हुआ कल्प शाखीके समान शोभता था । अब दीक्षा लेनेके लिए गणधर स्वामीके पास जानेकी तैयारी होने लगी, अत एव शुभ सुचक बाजे बजने लगे और मंगल पाठ पढ़े जाने लगे । अनादृत नामा जंबूद्वीप के अधिपति देवने 'जंबूकुमार' का सानिध्य किया । 'जंबूकुमार ' शिविका (पालकी) में बैठ गया, 'शिविका' को स्वजनसंबंधियों ने उठा लिया, हजारोंही आदमी जय जय शब्द करते हुए 'शिविका' के पीछे चल पड़े । थोड़ी ही देर में 'गणधर ' स्वामिके चरणारविन्दोंसे पवित्र उद्यान में पहुँच गये । उद्यानमें जाकर 'शिविका' को ठहराया गया । 'जंबूकुमार' ने शिविकासे नीचे उतरके गणधर भगवान के चरणारविन्दोंमें भक्तिपूर्वक पंचांग नमस्कार किया और हाथ जोड़कर यह विज्ञप्ति की कि भगवन् ! संसारसागरसे पार उतारने में जहाजके समान और कर्ममलको दर करने में निर्मल पानी के समान दीक्षा देकर मुझे सपरिवारको आपके चरणकमलोका भ्रमर बनाओ । करुणारससागर श्री सुधर्मास्वामिने सपरिवार 'जंबूकुमार' को यथाविधि दीक्षा दी। 'अब हम इनको जंबूकुमार न कहके श्री जंबूस्वामी के नाम से संबोधित करेंगे क्योंकि अब ये तारकुल दुनिया होगये हैं । पीछे 'प्रभव' भी अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर श्रीगणधर भगवान के चरणोंमें आ