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की दीक्षा
पोस्वामि
करते हुए
१६८ परिशिष्ट पर्व. [पंदरका गया । गुरुमहाराजने 'प्रभव' को जंबूस्वामीकाही शिष्य बना दिया याने 'प्रभव' को जंबूस्वामीके नामकी दीक्षा दी गई । .. 'जंबूखामी श्रीसुधर्मास्वामिके चरणारविन्दोंमें भ्रमरताको धारण करते हुए और दुःसह बाईस परीषहोंको सानन्द सहन करते हुए गुरुमहाराज श्रीसुधर्मास्वामिके साथ विचरते हैं । एक दिन श्रीगणधर भगवान् जंबूस्वाम्यादि शिष्योंके सहित विहार करते हुए 'चंपा' नगरीमें पधारे । 'चंपापुरी' के बाह्योद्यानमें कल्प शाखीके समान श्री गणधर' भगवान समवसरे । नगरवासि जनोंको मालूम हुआ कि श्री गणधर भगवान बाह्योद्यानमें आकर समवसरे हैं, अत एव नगरीके श्रद्धाशालि लोग श्री गणधर भगवानको वन्दन करनेके लिए टोलेके टोले चल पड़े
और खुशीका तो पारावार न रहा, स्त्रीवर्गमें तो इतनी उतावल होगई कि भगवान महावीरस्वामिके दीक्षा समय जो हालत हुई थी । जो श्रीमान् लोग थे वे आभूषण वगैरह पहनकर अपने अपने वाहनोंपे बैठकर जा रहे थे, उस समयकी शोभा कुछ अलौकिकही देख पड़ती थी। 'चंपा' नगरीमें उस वक्त श्रेणिक राजाका पुत्र 'कूणिक' राज्य करता था, उसने नगरवासि जनोंको सजबज कर जाते देख अपने नौकरसे पूछा कि ये सब लोग कहां जाते हैं? क्या आज नगरसे बाहर यात्रा है ? या नगर बाहर किसी मन्दिरमें पूजामहोत्सव है ? या कोई हमारे पुण्योदयसे जैनमुनि पधारे हैं ? जो इस प्रकार नगरके लोग सजबज कर बड़ी शीघ्रतासे जारहे हैं । नौकरने उन लोगोंसे पूछ कर राजासे अर्ज की कि हजूर नगरके बाह्योद्यानमें भगवान श्री सुधर्मास्वामी समवसरे हैं, उन्हें वन्दन करनेको सब लोग जा