________________
-
--
१३४ परिशिष्ट पर्व.
दशवाँ कि बड़ी अच्छी बात हुई, अब मुझे भी द्रव्य उपार्जन करनेका सरल उपाय मिल गया, अब मैं भी उस ' यक्षराज' की ऐसी आराधना करूँगी जो 'बुद्धि' ने भी न की हो और उस आराधनासे विशेष द्रव्य प्राप्त करूँगी । 'सिद्धि' को द्रव्य प्राप्तिके उपायकी जरूरत थी सो प्राप्त होही गया अब कहनाही क्या था । 'सिद्धि' 'यक्षराज' की सेवामें ऐसी तत्पर होगई कि उसने खानापीना भी भुला दिया । 'सिद्धि' ने प्रथम तो उस 'देवकुल' (यक्षमठ) को साफ कराके कलीचनेसे नवीन जैसा करवाया, अब प्रातःकाल उठकर निर्मल पानीसे उसे स्नान कराती है पश्चात् अनेक प्रकारकी भक्तिसे धूपदीप फलफूलादिसे पूजा रचाकर अखंड चावलोंके स्वस्तिक (साथिये) करती है और एक एक दिनके अन्तरे उपवासकी तपस्या करती हुई ‘यक्षनी' के समान उस मठमेंही वास करने लगी। जब बहुतसे दिन इस प्रकार आराधना करते हुए व्यतीत होगये तब एक दिन प्रत्यक्ष होकर 'भोलक' यक्ष 'सिद्धि' को कहने लगा-हे भद्रे ! मैं तेरी इस भक्ति सेवासे बड़ा प्रसन्न हूँ, तुझे जिस वस्तुकी इच्छा हो वह माँग ले । .
'सिद्धि' हाथ जोड़कर बोली-यक्षराज! यदि आप मुझपर प्रसन्न हो तो मैं अपने आपको कृतार्थ समझती हूँ और मुझे आशा है कि आप मेरे इस दारिद्र दुःखको दूर करेंगे । मैं आपसे कुछ राज्यपाटकी इच्छा नहीं करती मगर जितना द्रव्य आपने 'बुद्धि' को दिया है उससे दूना मुझे मिलना चाहिये । ' यक्षराज' 'बोला-अच्छा जो कुछ मैंने 'बुद्धि' को दिया है उससे दूनाही
तुझे मिला करेगा, यह कहकर 'यक्षराज' तो अदृश्य होगये । '. . 'सिद्धि प्रातःकाल उठकर यक्षके मंदिरमें जाती है वहांसे उसे
प्रतिदिन दो २ सुवर्णकी मोहर मिलती हैं, उन मोहरोंको लेकर